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1 अन्वय-पदाथ आर आवाथ सहित। ...1 . जिखको |

खेमराज श्रीकृष्णदासंने

21“ खेतवाडी वीं. गली खम्बाटा लेन)

|| निज “्रीवङ्कडेश्वर” स्टीय-पेसमें

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श्रीगणेशाय नम;

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` मूल, अन्वय, पदार्थे और भावार्थ सहित. ` | |

प्रथूस अध्याय हरिः ) ज्हावादिनो वदन्ति स्म जाताः ?

[महे ब्रह्मविदो व्यव

अन्वय ओर पदार्थ ( त्रझविइः) हेअह्नवेता- . “९ किमू) क्या «(अन्न 9 जब्"५कारणम्‌ -)

` (४) _ श्वेताश्वतर उपनिषद!) [०

कारणह। ( कुतः ) कहाँ से. ( जाताः स्मः) _ उत्पन्न हुए हैं ( केन ) किस करके (जीवामः ) - जीते हैं (क च) और कहाँ ( सम्प्रतिष्ठिताः _ प्रथ काले स्थिताः ) प्रलयकालमें स्थित होते ' हैं (केन ) किस करके अधिष्ठिताः ( नियमि- ` ताः ) नियम किये हुए (सुखेतरेषु ) सुख |

दुःखो में ( व्यवस्याम्‌-व्यवस्थास्‌ ) व्यवस्था | को ( वतामहे ) वत्ताव में लातेहे॥१३॥. . |

वथ ) बह्मतच्य का विचार करनेवाले

पण्डित गशतत्व की खोज करने के लिये | कट्टे हो इर आपस में प्रश्न करते हे कि- | दे ब्रह्मज्ञानी विद्वानों !.बरह्ल हीक्या इसे सकल | सृष्टि कारण हे! या कारण के विनाही इस | विश्व की उत्पत्ति होगई है ! इम कहां से | पतन ळे. अर RN जीवित ES ह] हिय

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१] . अन्वयपदार्थेभांवार्थ सहित (५) के समय इस जगत्‌ के सकळ जीव कहां रहे “थे? ओर कहां रहेंगे! अथवा प्रलयकाल में इम कहा थे और कहां रहेंगे! किस निमित्त वा किस के करने से इप सुख दुःख में नियम के साथ समयको विताते हैं ? कर दन सबका कारण, ब्रह्म ही है? या अपने आप ही यह जगत्‌ उत्पन्न होकर चलता रहता है |

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(६) श्रेताश्वतर उपनिषद्‌! |. अल...

. पुरुष (योनिः) कारण है।( इति) यह | (चिन्त्या ) विचारणीय हे। ( आत्मभावात्‌) . आत्मा के विद्यमान होने से ( एषाम्‌) इनका | | (संयोगः ) संयोग (न तु) कारण नहीं है | ' (सुखदुःखहेतोः) सुख दुःख के कारण ( आत्मा | ' अपि )-आत्मा भी ( अनीशः ) जगत्‌ की . . उत्पत्ति करने में समथ नहीं है २॥ . . (भावार्थ) -इस विश्व ब्रह्माण्ड के विपारे- |

णाम ( लोटबदल) का हेतु अथात्‌ सृंटिस्थि ` / ति और प्रलय का आधार कालही क्या जगत | की प्रलयहत्यत्ति का कारण है! या पदाथ की . |

` नियमित शक्तिके स्वभाव.से विश्व उत्पन्नं | _ हुआहे ! अर्थात्‌ अपनी स्वाभाविक शक्तिके ` ` कारणही क्या सकळ पदार्थ अपने ` उत्पन्न होगए हें! अथवा पूव॑जन्मों के पाप: ` पुण्य के फल के अनुसार नियति ( प्रारब्ध ) | ने दी.इस.अह्माएड, को रचदिया है... या. किसी |

अन्वय-पदार्थ-भावाथे साहित! (७) ` कारण के बिना ही अकस्मात्‌ इस विश्‍व की . उत्पत्ति होगई है.! अथवा आकाश आदि पचेत वा विज्ञानमय आत्मा ही क्या इस अन. न्त जगतको उत्पत्ति का कारण हे? इस का निश्चय करना चाहिये जब कि देश, काल . और कारण के अच्छे प्रकार से इकडे बिना. हुए कोई पदार्थ ही उत्पन्न नहीं होता, तब अ- . रुग > काळ आदिको जगत्‌ की उत्पत्ति | का कारण केसेःकहाजासकता हे! और आकाश . आदि पञ्चशत का विनाशं होने पर मी जब - आत्मा का विनाश नहीं होता है तब आकाश | ` आदि पेचभूत और आत्मा इनके संयोग को भी विश्वसष्टि का उत्पन्न करनेवाला नहीं कहा. जासकता है, केवल . जीवात्मा . को : भी. जगत्‌ को उत्पन्न करनेवाला कारण नही कहा. लासक... 'को-सेदा-ही

|

- (<) क्‍ जता उपानिषद | | [ अ० यु पुण्य और पाप रूप कर्माके अबुसार सुख आर दुःख भोगने पडते हैं, अतएव के मोधीन

जीवात्मा कदापि विश्वविधान का देतु नहीं

औरं (> he |" बं

एक ( कालात्मयुक्तानि ) काल जीवात्मा आदि कारणानि)कारणोंकों (अधि- | है (ते) वह अहा | ) ध्यानयोग में

पदार्थ-( यः) जो ( एकः ) is

FEE अन्बय-पदाथ-भावार्थं सहित। (९) `

` छुपीह ( देवात्मशक्तिम्‌) परमेश्वर की आत्म- शक्ति को ( अपश्यन्‌ ) देखते इए | ' (ावार्थ)-जगत्‌ की उत्पत्ति के अनेकों कारणों का वर्णन होने के अनन्तर उन ब्रह्मः

. वादी विद्वानोने ध्यानयोग से चित्तको सावधान

_ करके जाना कि-जिस अद्वितीय परमात्मा ने . ` ` काल जीवात्मा नियति आदि पहि

| (१०) श्वेताश्वतर उरपीलबद। [०

' पहले कहे हुए कारणों में से कोइ भी एक स्वतंर | ' होकर जगत्‌ को उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि ' यह सबही कारण उस परमपुरुष के अधीन है, | ' वह ही हन सब कारणों का एकमात्र परिचालक ' हे उसके चलाये बिना इन सब कारणों में से | कोई भी किसी का कारण नहीं हो सकता। . ` स्वगुणेनिगूढाम इस का.यह अथ भी किया- | जा सकता है कि-स्वगुण अर्थात्‌ परमेश्वर के. अपने गुण सर्वज्ञता, आदि के द्वारा आच्छादित | जो आत्मशक्ति अथवा स्वगुण कहिये सत्त्व रज . | तम इन तीन गुणों से ढकी हुई जो आत्मशक्ति - अर्थात्‌ सत्त्वगुण में विष्णु रजोगुण. मं ब्रह्मा, . 5 और तमोणण में रुदरूप से जित. की अपनी | शक्ति इस जगत की उत्पत्ति, पालन और प्रलय | का कारण होती है ऐसी जो आत्मशक्ति अथवा _ स्वगुण 'कहिये>अज्ञके"वशीधूत' "अति आदि |

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`] अन्वथ-पदार्थ-भावार्थ सहित 1 (११).

उपाधि के द्वारा छुपीहुई इूसरे के जानने में न. आनेवाली जो आत्मशक्ति वह प्रत्येक पदार्थ मे अदृश्य भाव से विराजरही है। इस के कुछ आगे ही कहाजायगा कि--“एको देवः सर्वभूतेष गढ: एक परमात्मा सब प्राणियों में गुप्तमाव :

से विद्यमान है। ऐसी आत्मशक्ति को ही. ` बह्मवादियो ने विश्व की रचनेवाली जाना . और भी कई प्रकार की व्याख्या होसकती है जो.

" नहीं लिखी है॥३॥

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(१२) खेताश्वेतर उपनिषद्। ` [अञ | तम्‌) तीन से ढके इए (पोडशान्तम्‌ ) सोलइहै ` अन्तभाग जिसके ऐसे (शताद्वारम्‌)सौके आधे | ` पचास हें, अर जिसमें ऐसे (विंशतिप्रत्यराभिः) ` बीस प्रत्यराओं से ( पड़भिः छः ( अष्टकैः) . अष्टकों से ( विश्‍्वरूपैकपाशम्‌ ) नानारूप एक | ` पाशवाली ( त्रिमागेमेदय ) तीन माग का है | - अह जिसमें ऐसे(द्विनिमित्तेक मोहम)दो निमित्तं | | से उत्पन्न हुए एक मोह बालेको ॥४॥ - | ( भावार्थ ) तत्वदर्शी विद्वानोने जिस ब्रह्म |

` चक्र को विश्व की उत्पत्तिके देतु रूप से निश्चय किया था, अब उस ही ब्रह्मचक्र की व्याख्या ` करते हैं-अनादि अनन्त आकाश इस सवोत्मक | विश्वरूप त्रझचक्र नेमि अर्थात्‌ चक्र कौ | . थारास्व पर महाचक्र की अवधि ( हंद) | |

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१) ` अन्वय-्पदार्थ-भावाथ सहित ) १३ )

` पांच ज्ञानेंद्रिय,एक मन,पाँच महाभूत यह सो- | . छट ग्रकारके पदार्थ इस चक्र के अन्तभाग हैं,

पचास अर कहिये चक्र शलाका हे, जैसे अरों | ( चक्र शलाओं ) से चक्र खुब इड रहता है.

_ तैसे ही तम, मोह, महामोह, तामिख, अन्धता-

मिस्र यह पाँच प्रकारके विकार ग्यारह प्रकार की इन्द्रियों की नौ प्रकार की तुशि की और आठ प्रकारकी सिद्धिकी, ऐसे अट्टाईस अशक्ति, नौ

` मकार तुष्टि और आउ प्रक्षारकी सिद्धि एब मरित . लकर इन पचास प्रकारकी चकशलाकाओंसे, .

जिस का वर्णन कियाजायगा वह बहाचक . .

_ हृढताके साथ जकड़ इवा हे उन चक्रशला-

काओं की हढता करने के निमित्त जैसे नेमि .

लाका इन दोनों का मेळ होने के

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(१४) श्रेताश्वतर डैपनिंषद। ... [अ- . ' लाकाओं ) को हृढ़ करने के लिये चक्षु, कणे . ` नासिका, जिह्वा, त्वचा, वाक, पाणि, पाद, | ' पाणु और उपस्थ यह दश प्रकार की इन्द्रिय. ' और रूप, रस, गन्ध, स्पश, शब्द, बोलना; . ' अहण करना, गमन; परित्याग और आनन्द _ ' यह दश प्रकार के इन्द्रियों के विषय संब | मिलकर; यह बीस प्रत्यर ( कीले ) लगाएगए : | हैं। इस चक्र में छः अष्टक हैं। जेसे (१) भूमि, « जळ, अग्नि वायु आकाश, मन बुद्धि, और अइकार यह प्रत्यक ( २) चम्‌, माँस, . | - रस, रुधिर, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र _ यह धात्व्क (३) अणिमा लघिमा, ` महिमा, प्राति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, . ओर कामावसायिता यह ऐश्वयाष्क। (४) | घम, ज्ञान, वैराग्य, _ ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, ` अवेराग्य'"ओर- अनेश्वर्य-यह“-भावाष्टकक |

` अर्थात्‌ धरम्‌, अधर्म, और अज्ञान, इन तीन ` मार्गो में को यह चक्र चलाया जाताहे इन तीन के सिवाय इस चक्र का और कोई मागे नहीं हे पाप और पुण्य के कारण उत्पन्न इए, देई, | इन्द्रिय, भन, बुद्धि | और जाति; के आदि अनात्स पढाथो में आत्माभिमान ` करता, डी...हम्न...सहाजक...का,-निमित्त दे.

१] सन्वयपदावआावार्य संहिता (१५).

` (६) ब्रह्मा, प्रजापति, देव, गन्धर्व, यक्ष,

राक्षस, पितृ ओर पिशाच यह देवाष्टक।

(६) दया, शान्ति, अनसूया, शोच, अना-

यास, मंगल, अकापण्य और अस्पृहा यह गुणाइक हे यह सब भी इस ब्रह्मचक्र के अन्तभूत हे स्वर्ग, पुत्र आदि और अन्त आदि विषय को इच्छा यह चक्र के पाशस्व-

' रूपहे घर्म, अधर्मं ओर अज्ञान यह तीन प्रकार का माग इस चक्र के विचरने की भूमि है. .

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_ (१६) ` श्वेताश्वतर उपनिषद्‌। [अण अभिमान के कारण ही यह चक्र घूमता हे। ऐसे बड़ेभारी' ब्रह्मच से यह सकल विश्व ` उत्पन्न हुवा हे, यह ही (तत्वज्ञानी विद्वानों ने | ` निणेय्‌ किया था ७॥ .. | जि 2 चोतो दु . पंचयोन्युग्रवका पच्‌ _ ग्राणोमि पंचबुदयादियूलास्‌ _ पचवत चटःखीधवेगा पंचाशद्धे- | ) दा पचपवमिधीसः॥ अन्वय ओर पदार्थ-( पंचस्रोतोम्बुम्‌ ) ` ` पांच सोते हुए हें जल स्थान जिस के एसी | _ (पृचयोन्युग्रवक्राम्‌) पांच योनियों से उदग्र ` आए वक् ( पंचप्राणोमिम्‌ ) पांच प्राण हें | तरंगेंजिस की ऐसी चु 4 ' पांचज्ञानों का कारण जो मन वह ही है मूल :.. वत प.) प्रांत (त्रिषय |

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` १] ` अन्वय-पदार्थ-मावार्थ सहित (१७).

हे. भँवर जिस के एसी ( पचदुःखौधवेगाम्‌ ) |

पांच प्रकार के. दुःखों का समूइ ही हे वेग जिस. का ऐसी ( पंचाशद्वेदाम ) पचास हें .

मेद्‌ जिस के ऐसी ( पंचपवोम्‌ ) पाँच हैं फाँट जिस के ऐसी, नदीरूप यष्टि को ( अधीमः ) i

( भावाथ) अब पहिले वणन किए हुए. | ब्रह्मयक का नदीरूप से वणन करते हैं | चक्षु आदि पाँच ज्ञानेन्द्रिय इस नदी का | जल हे पृथिवी आदि पेचभूता के कारण .. यह नदी अति भयानक दै और टेढी होरही . हे पांच प्रकारके वायु की परम ताडना -. से इस नदी में बडी मारी तरङ्गे उठरही हैं

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अथवा वाक, पाणि, पाद, पायु, औं

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१८) .. श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ ! [ अर... |

नदी को तरंगे हे मन ही इस नदी का सूल

` सोता है। जितने मी ज्ञान हे सब का हेतु

एकमात्र मन ही हे इस सब ज्ञानोंके

. आदि-कारण मन खे ही इस नदी

की उत्पत्ति इई है और जिस समय यह मन

. सब विषयासे निरक्षेप होकर एकमात्र ` अनूपम आनन्द में निमग्न और परमशान्त .

होता है इस ससय यह नदी भी तिस

'प्रशान्तसागर में ही मिलजाती है फिर |

उस समय द्वेताद्वेत का भेद नहीं रहता है। ` जब तक मन का मनोभाव दूर नहीं होता हे तब तक ही. यह जगत्‌ रूप प्रपञ्च हे और तब तक ही भेदबुद्धि है इस कारण ही मन ` को इस महानदी का सूल कहाहे मन. ही सब. . कांइतुहै।इस वात को. और. हा में भी. ` कहा, हेट मनो विजचसिमितं..सर.अक्किञ्जित्स-

शा ४९०७ _ 0 i हह एका जा कक हि कलक कट” तरिक, ,/000"10-] हाता कमला 1 “शक्य. जार का" फात-उत्क-यकलककक.

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; | अन्वभ-पदाथ-मावाे सहित | ( १९) | चराचरय्‌ मनसोडहामनोभावे द्वैत मित्त्वो पलभ्यते सन की सवेत ही प्रसुता है। `

इस सन के ऊपर जो प्रमुवा करसकते हैं

उनकी हृष्टिम फिर द्वैत अद्त का भेद नहीं | रहता है उस समय वास्तविक सत्य उनके

` विवेक रूपी. दपण से निरन्तर प्रतिबिम्बित | होता रहता हे। उन फे सब. सन्देह विलीन | होजाते हैं वास्तव में मंन ही संब प्रकार `. -के बोषरा आदिकारण हे :। इसी कारण |

मन को इस संसाररूपी नदी का सूल `

` अथोत उत्पत्तिस्थान कहा हे रूप, शब्द, ` .

गन्ध, रस, और स्पश यह पांच प्रकार | के इन्द्रियों को प्रत होनेवाले विषय इस | . नदीके आंवते कहिये जलके भॅत्रररूप हें, . ` क्यों कि-इस संसाररूप नदी के बड़े भारी . जञल८के,अवाकी. समाव. शाग्ड आदि. प्रांच _

(२०) खेताश्वतर उपनिषद्‌ | : | जे . प्रकारके विषयों में डूबकर प्राणी वास्तव में .. पहुंचने योग्य स्थान पर नहीं पहुँच सकते . जैसे कि-कोई जलमार्ग से यात्रा पक `. अचानक जल के भवर में पडजानेपर फिर अपने पहुँचने के स्थान पर नहीं पहुँच ` सकता है, किन्तु सोतेके बड़े भारी वेग के. ... कारण अङ्ग शिथिल. होजाने से. क्रमशः ` डूबता चलाजाता हे तेसे ही इस दुरन्त. / तरगा से भरे इए संसाररूपी समुद्रके जिसके. पार होना कठिन हे ऐसे . शब्दादि विषयरूप : बड़े भारी भवर में जब प्राणी फँसजाते है

तो फिर उन रा निस्तार होना कठिन & पड्ज Es रे अथाह अज्ञान 3 जाकर डूबजाते हैं, इसीकारण शब्दादि '

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क्त १]- आन्वय-पढाथे-मभावाथ सहित | (२१)

रोगका दुःख और मरते समय का दुःख ' बह पाँच प्रकार की यातना अटल प्राव के साथ सदा संसारमें विचरती रहती है।. मंदी जेस वेग की अधिकता होने के कारण परमभयानक आकार को धारण करती हे | तेसे ही यह संसाररूपी महानदी उपर कहे | पांच प्रकारके दुःखों को अटल भावले कारण महाभयदायक होरही हे अविद्या |

अस्मिता, राग द्वेष और अभिनिवेष इसे |

प्रकार के केशसे यह संसाररूपी नदी भरी हुई | है अर्थात यह पांचों केश रसमय संसार में | रखकर प्रतिक्षण-ससारी जीवों के हृदय में ममे : भदी दुःख देते रहते है सकछ दख के | आदि कारण यह पाँच प्रकारके छेशही हे ॥श॥. | सर्वाऽऽजीवे सवसंस्थे इहते अस्मिन्‌ - `

हसो आग्यते.नह्ाचके.। परथगात्मातं

अन्वय आर पढाथ-( हतः-इन्ति गच्छति इति हसो जीवः ) जीव ( सर्वाजीवे ) विश्‍व गे

के सकल पदार्थों की जीबनभूम्ि ( सर्वसंस्थे ` सकल पदार्थो के प्रलयस्थान .( बृहन्ते-बहति अति महान ( अस्मिन्‌ ) इस ( ब्रह्मचक्रे ) ` अल्चक्रहप ब्रह्माण्ड में ( आत्मानम्‌.) जीवाः . त्माको ( प्रेरितारस्‌ ) और प्रेरणा करने ` वाले ईश्वर को ( पृथक) भिन्नरूप ( मत्वा _ मानकर (रम्यते) जन्म मरण के चक्र में वारम्वार घूमता है ( ततः ) तदनंतर ( तेन) . उस.ईशवर के द्वारा ( जुष्टः ) अनुमह का पात्र ` - होता हुवा ( अृतत्वम्‌ ) मोक्ष को (एति) माप Es | होतवा.हे ॥, द्‌ पी Varanasi 50100101. Digitized 0/0001900. ' हँ

[१] अन्वय-्पदार्थ-भावार्थे सहित (२३)

( भावार्थ) यह विश्व चक्रहप बहुत ही | बड़ा ब्रह्माण्ड विश्व के सकल ही पदार्थो की . जीवनभूमि हे इस अनन्त ब्रह्माण्ड में ही सकल : प्राणी उत्पन्न होकर परते हैं और उस में ही प्रलय को प्राप्त होजाते हैं आत्मा और इश्वर | इन दोनों में भेद मानकर जीव वार इस संसारक्षेत्र में आवागमन करता है। जब वह भेदभाव दूर होजाता हे ओर निञ्चयरूप से यह जानाजाता हे कि-यह दोनों एकरूपही है तब | अमरपना आप्त हो जाता है। तात्पय. यह है | कि जीवात्मा और परमात्मा में भेद जानना ही

संसार में वार जन्म मरण होने का कारणईै |

जबतक यह द्वेतमाव जीव के अन्तःकरण में '

जमा रहता हे तबतक इसको बार दुःखभरे ` संसार में आवाजाई करनी पड़ती है जो कि. .

आत्मा नही हे ऐसे जड देह. आहि को आत्मा

Soe | से ८२४) शताश्वतर उपनिषड। [ अः __ समझनेके कारणजीवात्मा और इश्वरको भिन्नः ___ समझकर मोहसे अन्धा हुआ जीव देह मनु ` ` ष्यपझ्षु पक्षी आदि अनेकों योनियों घूमता अनन्त काळ तक गर्भ में की और

` उत्पन्न होने के समय की पीड़ाओं को पाकर संसारके असंख्यों क्ेशों के कारण. जीण ' होजाता है, फिर जब जीव का. यह भाव - ' होजाताहे; तब श्रेष्ठ गुरुकेउपदेश और चित्तको शुद्धि आदिसे हृदयका वह विषेला संस्कार विन

` होजाताहे, सचिदानन्द) अद्वितीय ब्रह्म और ` ` आत्ता एकही है ऐसा समझने लगता हे अर्थात्‌ je ke जब ऐसा ज्ञान होज्ञाता दै ` जीवको बन्धन की पीड़ा नहीं भोगनी पडती - अमृतत पाता हे और सब दुःख दूर होजाते सार्‌ महु हे कि.-जो. आत्मा को, पर्णा ब्रह्न

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जो आत्मा को परमात्मा से पृथक्‌ मानते हे

| १7 अस्वथ-पदार्थ-मरवाथे संहित।. ( २५) स्वरूप जानसकते हे वइ ही मुक्ति पाते हशर

उन्‌ को वार वार ससारबन्धन में बंधना पड | ता हे, आत्मा ओर परमात्मा में भेद इष्टिरखना . ही संसार में आवागमन का घुख्य कारण है | इस्‌ विषय पर बृहदारण्यक उपनिषद में काहे | “य एव वेदाई ब्रह्मास्मीति इद्‌ सव भवति | स्येह देवा सूत्या इशते आत्मा |

अन्याऽसो, अन्योइमस्मीति वेद यथा ` 'पुशुरेवं देवानामिति ' विष्णुधम में भी कहा. | है“ पश्यत्यात्मानमन्यन्तु यद्वे प्रमात्मनः। ` | तावत्स आम्यते जन्तुर्मोहितो निजकमणा॥ |

संक्षीणाशेपकमा तु परअल्न प्रपश्यति अभेदेन

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यह है कि-जबतक जीव

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परम ( ब्रह्म ) ब्रह्म ( तुएव) ही ( र्‌ द्वीतृम ) | _ ८८-0. ५९810 Bhawan Varanasi Collection. Digitized. by 6 01. ४.

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भिन्न जानता है, जबृतक यह भेद्बुद्धि इर नह |

होती है तबतक यह अपने दुर्विपाक से मोहित होकर इस संसार में घूमता रहता है| फिर जब इस के समस्त कम शेष होजाते दै भेदबुद्धि दूर होजाती है, आत्मा और परमात्मा. को एक समझनें लगता है तब यह परमझुद् होकर संसारबन्धन से छूटजाता है, हृदय के

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सब सन्देह दूर होजाते हे और पहिले कभी

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१] . अन्वय-पदा्थ-भावार्थ सहित। .(२७)' `

वेदान्त आदिमें उपदेश किया गयाहे (तस्मिम्‌) 'उद्षमें ( अत्रम्‌ ) मोक्का,भोग्य और नियंता यह . तीन भाव हैं ( छुप्रतिष्ठा ) उत्तम प्रतिष्ठा का

आधार (अक्षरम्‌ च) अविनाशी भी है ( अत्र ) डर इस जगत्‌ में महविदः ) बहावेत्ता (अन्तरस्‌)

| जिस को जगत प्रपञ्च स्पशं नहीं कर सकता , है ऐसे ब्रह्म को ( विदित्वा) जानकर ( तत्परा): त्रहचिन्तवन में तत्पर होते इए (ब्रह्मणि ) ब्रह्म में. ( लीमाः) लीन होकर ( गभपुक्ताः ) | गभ्‌, आदि की पीडाले सुक्त ( भवन्ति) - होते हैं ७॥ $ . -(आवाथ ) इस से पहिली शृतिंयां में . काय कारणस्वछूप प्रपञ्च सहित ब्रह्म के विषय २. का व्याख्यान किया गया है अथात्‌ मायास- | हित अल्ल ही इस जगत की उत्पत्ति का आदि कारण है और आत्मा तथा ब्रह की अभेद बुद्धि ._

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` (२८) ` श्रेताश्वतर उपनिषद [ | ;

ही मुक्ति का कारण है, यह बात दिखाई गई। परन्तु यथोपासते तदेव भवति उस जिस प्रकारसे उपासना की जाती है उपास

` _ ब्रह्म की उपासना में मोक्षपद की प्राप्ति असर ` ` हुई जाती है, इसी लिये छठी. श्रुति के अन्त | ' जञुषस्ततरतेनामृतत्वमेति'इस वाक्य का किया | इभ मोक्षोपदेश अयुक्त हुआ जाता है, | विरोषषूप सन्देह को दूर करने के लिये इस७ / शति में कहा हैकि--मायासंवलित प्रपश्षसहित `. ब्रह्म विश्वविधान का कर्ता है, यह ठीक है. ` वेदान्त आदि में इस विषय की निर्बिरोध . मीमांसा कीगई है। परन्तु मायाविशिष्ट बन से जगत्‌ की उत्पत्ति होनेपर भी मनन आदिक

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2 शान्‌ किया जायगा अर्थात पुदित पस्‌

-१] अन्यय-पदार्थ-भावाथ सहित . (२९) `

| ब्रह्म की आराधना करनी होगी ऐसा होने पर॒. | ही -'तं यथा उपासते तदेव भवति। इस शुतिकी ` मय्यादा रक्षित होती है।परसब्ह् की उपासना | के फछ से परमोचम फल युक्ति प्राप्त होगी। |

यहाँ और एक यह भी प्रश्न हो सकता है कि-जब | ' ब्रह्म की गुणयुक्त ओर गुणातीत दो प्रक्कार की | अवस्था वणेन की गइ तब अद्वितीय ब्रह्म के | चिन्तवन से मुक्ति होती हे, यह पहिले कहा .

इवा वाक्य केसे ठीक रहा ! क्यों कि-ऊपरके . .

| वाक्य से ही रह्म की अद्वितीयताके खण्डन.क | साथ उसको दो प्रकार का कहागयाहे | इस संदेहको दूर करने के लिये ही इस | श्रुति के हसरे चरण में कहा गंया है कि- .. ` प्रपञ्चातीत ओर प्रपञ्चथुक्त इस दो प्रकार . की अवस्था का अथ दूपरे प्रकार का है अथात | बरह्म जगत्म्पञ्च से सदा असंमृष्ट ( स्पशरहित) `

lukshu Bhawan Varahasi Collection. Digitized by ‘eGango

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(३०) श्वेताइबतर उपनिषद्‌! [भ~

हे, परन्तु माया आदि प्रपञ्च उससे अलग नहीं हे, क्योंकि-भोक्ता( भोगनेवाला ) भोग्य ( भोगने योग्य) और प्रेरक यह तीनों उस ब्रन्न में ही स्थित हैं कुछ आंगे चलक्षर इल विषय में कहा जायगा कि-'अजा हेका भोळुभोग्याथ भ्रयुक्ता। वह मांयातीत है, परन्तु माया आरि का उस से भिन्न और कोई आधार नहीं दै उसकी एक मायामय विकत अवस्था से ही ` जगत्‌ उत्पन्न इवा है, परन्तु वह स्परूप मे| जगत्‌ के सकल व्यापारों से प्रथक्‌ है। जगत्‌ के कर्म में उस की आसकि नहींहे यह ब्रह्मांड उस गुणातीत परब्रह्म में अति उत्तमता के साथ प्रतिष्ठित. हे; उसके विकार आदि यद्यपि प्रपञ्च का आश्रय होने के कारण क्षय-| 'पारणामी हे परन्तु वह स्वयं अक्षर अर्थात. अविनाशी नित्य हे क्योंकि उस का विकार ही »

CC-0. Mumukshu

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' अन्य ददार्थ-भावाथ सहित। (३१९)

मावा स्वरूप है, वह माया स्वरूप नहीं

अचल; नित्य और सब विषय में निर्लित है। _

बहातत्त का अनुशीळन करनेवाले पण्डित; उसकी इस माया; आदि के स्पशे से रहित . .

निर्णण निर्विकल्प और मन वाणी की अगोचर

व्यवस्था को जानकर आत्मा के साथन्रह् का . अभेद हृदयंगम कर उसमें लीन होजाते हैं और :

इस महा समाचिश्वा आश्रय लेकर जन्ममरण . आदि के सकल दुःखों से रक्षा पाते हुए संसार | भय से छूटकर अमृत पद. (मोक्ष ) पाते हैं। | आत्माके साथ गुणातीत परमात्मा के अभेद | ज्ञान का दूसरा नाम संमाधि है। इस समाधि ` से ही परमात्मा का दशन होकर मुक्ति मिलती हे, 1१ में योगि याज्वर्क्य ने भी ऐसाही कह Muntikshu Bhawan Varariasi Coll i Digitized by eGahgot हर हे

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विकाराश्रयी होनेपर भी संवंदा' ही कूटस्थ, . ` | |

(३२) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌।, [ अ)

सयुक्तमेततक्षरम करच, व्यक्ताव्यक्त 4 भरते किश्विमीशः। अनीशश्चात्मा |. `. वध्यते भोक्तभावाज्ज्ञाला देवं ये सबपाशेः॥ ८॥ 1100

` अन्वय ओर पदार्थ ईशः ) ईश्वर (संगु: ` कतम्‌) परस्पर संयुक्त ( क्षरम्‌ ) विनाशी ( च) ) ) . और ( अक्षरम्‌) अविनाशी (` व्यक्ताव्यक्तम ) | ) व्यक्त कहिये विकार से उत्पन्न हुए और अव्यक्त | ˆ कहियेव्रिकारसे उत्पन्न हुए ( विश्वम्‌ ) सकल | ` विषयों को ( भरते ) भरण करता है ( च) |. और ( अनीशः) ईश्वरत्वरहित ( आत्मा ) :

` जीवात्मा (भोळमावात ) सुख दुःख आदि का |.

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| १.] ... अन्वंय-पदारथ-भावार्थ सहित। (३३). | | जानकर ( सवपाशेः) सकल बन्धनोंसे (सुच्यते) "छब्जाता हे॥ ८॥ | कक ।: (भवार्थे )-पहिली कारिकाओं . में परबह :

का अंद्वितीयपना और जीवात्मा को अभेदबुद्धि को शक्ति का हेतु होना दिखाया है अबजीवा- : त्मा ओर परमात्मा का सामयिक उपाधिकृत

. भेदके सिवाय वास्तव में कुछ भेद नहीं हे, यह | “बात. दिखाते हें-विश्व का काये कारणभाव दो... “प्रकार का है, एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त) जो विकार से उत्पन्न हुआ है; उसं को व्यक्त | . कहते है, ओर जो विकार से उत्पन्न नहीं हुआ. हैं उसको अव्यक्त कहते हैं, जो किसी प्रकार के विकारयुक्त भाव से उत्पन्न हुआ है वही विनाशी . . “कहिये क्षर, है ओर जो विकृतभावसे. उत्पन्न “नहीं इआहे वही अविनाशी कहिये अक्षर हो |

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(३४) . ेताखंतर उपनिषद्‌ [ भऽ | यह अव्यक्त अथात विकारसे उत्पन्न होनेवाला नित्य कारणही भगवान्‌ कपिलजीके मतसै भुल प्रकृति कहाताहै।इसीकारण इंश्वरकृष्णने कहारे . . सूलप्रकृतिरविकृतिः '। अव्यक्त कारण समय | . विशेष पर व्यक्तमाव धारण करता हुआ विकत | :.- होज्ञाता है, वह अव्यक्त का ही अंश है, केवल

उपाधि के भेद से व्यक्तरूप में भासमात्र : होता है अव्यक्त के इस उपाधि से. ) ग्रसं हुए व्यक्तभाव से ही विश्व की उत्पत्ति हुई हे क्योंकि- अव्यक्त) अविकृत, अती- ' न्द्रिय कारण से व्यक्त अर्थात्‌ विकृत इंद्रियों | | ` से महणं ` कीजातेवाली, सकल सृष्टि की. उत्पत्ति होना. सम्भव हे इसीलियें अव्यक्त | . की इस व्यक्तरूप अवस्था.को भी व्यक्तस्वरूप | जगत्‌ का कारण कहागया हे अत एव | एकाग्रता के-साध-ध्याव “देने. मरअतीत'ोोता |

१] अन्वय-पदार्थ-भावार्थ सहित ( ३५) | | हे कि-जगत्‌ का प्रयुज्य ( प्रेरित होने योग्य ) कारण अव्यक्त के ही अधीन है, तब परम्परा-

सम्बंध से प्रयोजक, अव्यक्त कारण भी जगत्‌.

की सृष्टि का कारण है इसी लिये कहा गया

हे कि-विश्व के कार्य कारण दो प्रकार के हैं . व्यक्त और अव्यक्त परमेश्वर इस व्यक्त और. अव्यक्त दोनों कारणों वाळे कायेषूप विश्वका

भरण करता हे उपाधि के कारण कुछ समय | को प्रतीत होनेवाले भेद के सिवाय उन के |

साथ जीवात्माका वास्तव में: कोई भेद नहीं

हे उपाधियुक्तं जीवात्मा उस उपाधिशुन्य | रया हा ही. प्रतिबिम्ब हे एक वस्तु जल ही जेसे कुछ समय के लिये बरफरूप

- बनजाता है; परन्तु उस का वह बरंफरूप .. ` परिणाम भी जल के सिवाय और कुछ नहीं है 2 (पैसे. ही 8 एक परमात्मा ही मृष्टि रचने |

(३६) खेताश्तर उपनिषद [अ~ | ` की इच्छा के कारण जीवात्मा हूप से उपाधि | . युक्त होजाता हे, परन्तु वह उपाधिगत | - जीवात्मा. का परिणाम परमात्मा के सिवाय

और कुछ नहीं है उपाधिग्रस्त जीवात्मा | ` ही जब उपाधि से मुक्त होता हे तब उस में

. नहीं है। फूल भोगना पडता हे, इसलिय॑ ही | ४. जीवात्मा. को, मुक्ति, त.पातेतक, अविद्याओर |

| १]. अन्वयन्पदार्थेभावार्थ सहित। (३७) अविद्या के काय देह इंद्रिय आदि की कठिन

ता से टूटनेवाली फाँसी में बैना पडता है।

` परमात्मा को फल नहीं भोगना पडता हे. और वह अविद्याकेवश में भी नहीं होता है ऐसा कूटस्थ अक्षर अथात्‌ अविनाशी उत्तम | पुरुष ही परमात्मा कहाता हे। यह अवि- नाशी पुरुष ही त्रिलोकी का भरणकरता है | एक,यह ही सत्यहे और यही सनातन है : | और सकल भूत अनित्य हैं। यही बात भग- | बानने गीता में कही. है कि-'क्षरः: सर्वाणि - भूतानि कूटस्थोऽक्षरः उच्यते उत्ततःपुरू | _ षस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहतः यो लोकत्रय | . माविश्य बिमत्यव्यय ईश्वरः ”, उपाधि से ` ` विकार को प्राप्त हुआ जीव ऐसे जब निरुपा- | . चिक परमात्मा को, उपाधिगत जीवात्मा से ` प्रयूक ई, जनता ह.त, इस. केसकर |

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( ३८ ) वेत्ताश्वतर उपनिषद्‌ [ ज०- |

' बन्धन दूर होजाते हें भेदबुद्धि दूर होने से उस कामी भेद दूर होकर परम पुरुष का सायु प्राप्त होता हे यह सब उपाधि .' - अस्त भेद्‌.उस परमपुरुष का ही है, उस को . छोड़कर ओर कुछ हे ही नहीं जब ऐसा ज्ञान ' उत्पन्न होजाता हे तब जगत्‌ के सकल पदार्थों | - का स्वरूप ज्ञात होजाता हे और वस्तु के स्व . रूप का ज्ञान अथात्‌ सकल वस्तुओं के धम मालूम होने से उन सब जाने हुए पदाथों का नाशवान्‌ पना आदि ज्ञात होकर अन्तः करण में से मिथ्या वस्तुओं में जड़ीहुई आसक्ति दूर ' इोजाती है। उस आसत्ति के दूर होने से हानि ' लाभ का दुःख सुख भी मन को चलायमान नहीं करसकता है। वह चित्त की अस्थायी चंचलता दूर होजाने पर जीव का मन और प्राण. अतुल, अनन्त, बरहमाननदुरस मे मग्न हो जाते |

| १1 ` . अन्बथ-पदार्थ-भावार्य सहित | ( ३९) हे एक अद्वितीय परमात्मा ही उपाचिग्रस्त | आत्मारूप से अनेकों पदार्थों में विराजता है | इस बात को दिखाने के लिये भगवान्‌ याज्ञव- | | ने कहा है “आकाशमेकं हि यथा घटा- दिपु प॒थग्भवेत्‌ तथात्मेको - झनेकश्च जला- ` | घारेष्विवांशुमान' जेसे एक महा आकाश घर | | |

घट आदि फिन्न उपाधियों में मित्र रूप _ का प्रतीत होता है, वास्तव में वह महाकाश . पे अलग नही हैं, क्योंकि घर घट आदि का नाश होने पर फिर वह अलग प्रतीत नहीं. . ता, किन्तु इस महाकाश में ही मिलजाता है अथवा जसे एक ही सूय, जल के भरे हुए अने .. कों पात्रो में प्रतिबिम्बित होकर अनेकों रूप | का प्रतीत होता है; परन्तु ऐसा होने पर भी . वास्तव में वह सूय एक से अधिक नहीं होता है, | तसे-दी परक्रमात्-आत्मा-भी-डपाधि--के भेद से

(४०) खेताश्तर उपनिषद्‌ [ अ०- |

' अनेकों रूप धारण करता है, परन्तु वास्तव में | . वहएकहे॥ .. आत्मा जबतक प्रकृति के सत्वादि शुणों से | जुक्त रहता है तबतक भिन्न प्रतीत होता है, यह ` ठीक है, परन्तु जब उन जुणों से छूटकर शुद्ध | ` होजाता है, तब परमात्मा शब्दसे कहाने लगता | है आत्मा अविद्या से आच्छन्न होकर अपने : सें स्थित परमनह्म तत्त्व को भिन्न मानता हे | , औरं अविद्या से छूटजाने पर ऐसा भाव भी ) / दूर होजाता हे विष्णुधममें इस विषय पर ` कृहाहे किस आत्मा क्षेत्रज्ञसन्ोडय सयुक्त; प्राङ्क | तैग्रेणेः तेरेव विगतः शुद्धः परमात्मा निगद्यते। | . अनादिसम्बन्म्वत्या केत्रज्ञोऽयमविधयया युक्तः |. ` पश्चति भेदेन त्रह्मत्वात्मनि संस्थितसा . _.. अब a | उठता हे कि प्रकृति के

| १1: अन्वग-पदार्थ-मावार्थ सहित। . (४९)

आत्मपुरुष किसी प्रकार.की मलिनता आती .. हेया नहीं! उल गुणयुक्त अवस्था के दूर होने ' . | प्र गुणो के धर्मों छा आश्रय होने के कारण -

उत्पन्न हुए विकार का स्पर्श उस अविकारी | | पुरुष में होता है या नहीं ! इस के उत्तर में

| यह कहा जा सकता है कि जैसे डुआं, अवर, . | बलि आदि से आकाश का वणे बदलाइआ _ | ` प्रतीत होने पर भी आकाश में वास्तव में . किसी प्रकार की मलिनता नहीं आती, तेसे ही |

पुरुष प्रकृति के सख आदि शुणों से युक्त | होकर अनेकों आधारों में जीवात्मारूप छे विरा | | जता हे. परंतु जब गुणो से युक्त होकर अपनी | |. वास्तविक अवस्था को प्राप्त होता है, तब . उसमें भी किसी प्रकार का विकार वा सलि- | नता संयुक्त नहीं रहती हे ब्रह्लपुराणमें -

' यही बा =. पूमामधलिसिव्यी- i 0-0 umMukshu aR ad क़ि Collectie 6४99 द्म | td |

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. परमात्ससायुऱस, (मुक्ति, हे |... जय | |

. शिष्य गोडपादाचाय ने भी कहा है कि-“'यथे कस्मिन्‌ घटाकाशे रजोपूमादिभियुते सर्वे

_ आदि कुछ नहीं भोगना पड़ता दै इससे ` भी सिद्ध होगया कि-उपाधिपुक्त जीवात्मा के! . साथ परमात्माका कुछ भेद नहीं है। शा

(४२) श्चेत्ताश्वतर उपनिषद 1 |

यथा मलिनीयते प्राकृतेरपराशष्टो | विकारेः पुरुषस्तथा शुकदेव जी

सम्प्रथुज्यन्ते तद्वणीवाः सुखादिभिः ॥” ` | अतएव परमात्मा में उपाधिग्रस्तता होने के

- कारण से ही जीव ओर ईश्वर के भेदकी व्यव

सिद्ध हुई सुख दुःख आदि का भाँग |

` करनेवाला एकमात्र कत्ता. वह उपाचिग्रस्त

जीवात्मा ही है विशुद्ध सत्त्वोपाधि परमात्मा उपाधि के संग से सुख दुःख मोह. माया.

की उपाधिरहित अवस्था का ही दूसरा नाम|

| १] अन्वथे-पेदार्थ-भावार्थ संहित (५३) | शाही डावजावीशनीशावजा हेका . ` सोकमोगार्थयुक्ता अनन्तश्चात्मा. .

| ` विश्वरूपो शकता त्रयं यदा विदन्ते | | शहामतत्‌॥९॥ | A अन्वय और पदाथ-(इशनीशो-इशानीशो)

| -इश्वर और जीव ( द्वौ ) दोनों (ज्ञाज्ञो ) सर्वज्ञ | और अज्ञ ( अजी ) जन्मादि रहित (स्तः) है।( एका ) एक (अजा) प्रकृति |

( ओक्तुहीगार्थेुक्ता ) भोक्ता, भोग और भोग्य से युक्त ( अस्ति ) है (च) ओर (आत्मा) | आत्मा अनन्तः). अनन्त ( विश्वरूपः ) |

सकल जगत्स्वरूप ( हि ) निश्चय (अकर्ता ) ` कत्तापन से रहित (अस्ति) हे ( एतत्‌) इंस

( नयम्‌) तीन्‌ मकार के क्षों वाले (जह) AE

(४४) श्वेताश्वतर उपनिषद [ |

| की अपनी शक्ति कोई नहीं है, परन्तु यह दो | _ ही अनादि हैं, क्योंकि जन्म मरण आदि ` साहाक-कपा.सि दिद, आता. अद्वितीय

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ह्म को ( विन्दते ) समझता हे (तदा) तब

. (दुच्यते) सुक्त हो जाता है

भावाथ )आठवीं कारिका में यह दिखाया

| | _ जा डुका हे कि--परमेश्वर व्यक्त अध्यक्ष काय . कारण स्वरूप, विश्व का दरण करने वाला है

आर प्रकृति का वशीभूत जीवात्मा इन्द्रिय

आदि और उनसे अहण होनेवाले सकल पदार्थों ' के अधीन है। अब इन दोनों में और जो कुछ री विलक्षणता हे सो दिखाते हैं, कि-परमात्मा / सकल विषयों का जानने वाला और जीवात्मा |. कुछ भी नहीं जानने वाला हे, परमात्मा सर्वे. शक्तिमान है और जीवात्मा शक्ति रहित है।|

प्रकृति की शक्ति के विना,जीव नामका आत्मा

| १] अन्वयपेदार्थआवार्थ साहित | (४५) सनातनी परमा प्रकृति के भळावेमें पडकर जीव | नाम (पाचि) को धारण करता हआ सांसा- - | रिक भोगों का कता कहाने लगता हे, एपाधि _ से अस्त होने पर ही जीवात्मा नाम से कहा | जाता है, नहीं तो उसका अपना वास्तविक. . जन्म आदि कुछ नहीं होता है,वह भी परमात्मा | की समान ही अजन्मा है, इस की अपनी . | अलग कोइ शक्ति नहीं है, परमा प्रकृति . वा परमा माया की शक्ति से ही पारिचालित ' | होकर वह प्रकृति के विकार से उत्पन्न : हुए भोगने योग्य पदार्थों का भोग करता . | है जब. वह माया वा प्रकृति का | आश्रय लेता हे तब ही उस का औपा- | घिक जीव” नाम रखता जाता हे, वह | भोग के कत्ता रूप से शुभ आशुभ : व्यापार को भोगता है, नही तो स्वयं वह.

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(४६) अेताश्वतर उंपनिषद। ` [ अणः |

- संसारधमका भागी कमी नहीं हे आत्मा ' प्रकृति के आश्रय से केवल जीवरूप मात्र को ' भोगता है, वास्तव में अकत्तो अर्थात्‌ परमात्मा | ' की समान संसारधम के संग से रहित अनन्त ... है और चराचर . विश्व उसका ही स्वरूप हैं।

प्रकृति के संग से जीव नाम को पाने पर छुख

` दुःख का भोगनेवाला सा प्रतीत होता है। जो

` पुरुष परमात्मा, प्रकृति का आश्रित जीवात्मा |

ओर प्रकृति, इन कठिन से जानने योग्य तीनों | / तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता ` है, वह ही परमन्नह्म ज्ञान का मुख्य अधिकारी | | + है, वह ही सब प्रकार के बन्धन से छूटकर र्‌ | शाश्वती गति पाता है ९॥

|} ] ऊन्वय-पदार्थ-भावार्थ तहिते। (४७) `

| -यौज्ञवात्तलधावाइयश्चान्ते . विश्व माबा निदटतिः॥.१७॥

बय्‌ और पदाथ इदभ्‌ जगत्‌ ) यह जगत्‌ (क्षर्‌ ) नाशवान्‌ ( प्रधानम्‌) परमात्मा ( अशताक्षरस्‌) अचत ओर अबि: नाशी ( हरः) अविद्याको इर करनेवाला | | (अर्ति) है। ( एकः) अद्वितीय (देवः ) ` - देव ( क्षरात्मनो-क्षरात्मानो ) प्रकृति ओह . जीव को ( ईशते) नियम में चलाता है (भूयः) ` वार २( तस्य्‌) तितके अभिध्यानात्‌ ) - | ध्यान करने से (योजनात ) परमात्मा में विश्व | का संयोग करने से ( तत्त्तमावाव ) मेब्रह्न हुँ ऐसा चिन्तवन करने से ( अन्ते) सकल कर्मो- . “की समाति होने पर ( विश्वमायानिवृत्तिः ) सकल माया की निवृत्तिभवति)हों जातीहे१°॥

(४८) - ˆ श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [

भावाथ-यहः चराचर विश्व ब्रह्माण्ड क्षर

अथात्‌ एक दिन अवश्य नाश को प्राप्त होने `

' वाला हे, एक परमात्मा ही अशत ओर अक्षर | कहियेअविनाशी हे वह जीव की अविद्या को हर लेता है इस कारणही उस का नाम इर है| वही सब से प्रधान ओर अद्वितीय पुरूष जीव |. को विनाश शील भोगके पदार्थों में रुचिवाला करता हे अथवा उसके आश्रय के कारण से ही जीवात्मा नाशवान्‌ भोगक पदाथा का भोग कर | सकता हे परमात्मा करके प्ररोचित किया | | ` हुआ ही जीवात्मा विश्वको भोगता हे, इस. बातको श्रुति भी कहती कि--“तस्माद्वि- राडजायत बिराजो अधिपूरुषः ।” अथोत्‌ उस |. निराकार परम पुरुष से विराट्‌ अथात्‌ ब्रह्माण्ड | हप देह उत्पन्न हुआ ओर डस विराट देह के के |

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१] . अन्वय-पदार्थ-भावाथ सहित (४९) | देह के अभिमानी पुरुष ने जन्म धारण किया | | सकल वेद वेदान्तो के द्वारा जानने में आने- | वाला परमात्मा माया के द्वारा विराट्‌ शरीर .. | को रचकर उसमें जीवहूप से प्रवेश करताहुआ | ब्रह्माण्ड का अंभिमानी जीव होगया उसने ` | | जब जीवरूप धारण किया उस समय देवता | मडुष्य आदि अनेकों रूप धारण किये तथा | | पञ्चशत और जीव शरीर आदि की सृष्टि दु। | एसे सवनियन्ता, संवकत्ता, सवप्रथु, सचि | दानद, अद्वितीय परमात्मा का नामोज्चारण |

अथीत इसका वणन करनेवाले प्रणव का

| कीत्तन करने से और विश्व के सकल पदाथा | में उसकी ' व्याति अर्थात वह वि व्यापक है, विश्व हरंसमय उसमें संयोगसूत्र में | हढता से बैधाइआ है और में उस विश्वव्यापी |

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/ जीव की झि होती है॥३०॥

डर (५०) खेताखतर उपनिषद्‌। [ अ. | ' पदार्थ उस के अंश है, ऐसे तत्त्वज्ञान आदि |

द्वारा मनुष्य कठिन से कटनेवाली कर्मपाशी से सक्ति पाते इए; सुख दुःख मोह आदि सकर प्रकार के प्रपञ्चहप माया से निवृत्त होका केवल्यपद को पाते हे सदा आत्मा के साथ. परमात्मा का अभेदभाव से चिन्तवन, विश में सवेत उस की ही बिभ्रति देखना तथा प्रणा का कीत्तेन करने से आत्मतत्त्व का साक्षात्का. होता है, आत्मतच्ब के साक्षात्कारमात्र से

' ` आप्तकामः ११

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अन्वय,ओर, पदाथ-. (.. दवम्‌) देव को.

| १, अन्यय-पदार्थ-भावांर्थ सह्ति। (५१) |

| (ज्ञात्वा ) जानकर ( सवेपाशापहानिः ) पॉ श॑. स्वरूप संब की अविद्याओं का नाश ( भवति) .

| होता है ।( क्केशेः ) केशों के ( क्षीणेः) क्षीण होने

पुर ( अन्समृत्युप्रदाणिः) जन्म मरण की निवृत्ति _

[.( भवति ) होती है(तस्य ) तिस के ( अभि- |

| ध्यानात्‌ ) चिन्तवन से ( देइभेदे) देइपात | | होने पर ( तृतीयम ) तीपरा ( विश्वेश्वयम्‌)

| सकळ ऐ*वय ( प्राप्यते ) ग्राह्तद्दोता है (ततः )

| तदनन्तर ( केवलः ) सकल ऐश्वैय में स्पशेर- | | हित होकर(आप्तकामः) प्रण इए हें सकल मनो- रथ जिस के ऐसा ( भवति.) होता है॥ ११ . (मावाथे )-परम देवता परमेश्वर को जान | जाने पर अथोत्‌ उस के साथ आत्माका तथा -: | अन्यान्य पदांथों का कुछ भेद नहीं है, सवव उस की विश्वव्यापिनी विभूति ही पूरीहुई है, | बह सुबो का जाननेवाळा और सबों में स्थि |

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(५२) अअलाश्वेंतर उपंनिषट्‌। [| 4 |

. है, यह भावना हदय में दृढ होजाने पर फांसी

के दुर हुए विना उस परमेश्‍वर के नत बुना

. जीव शरीरपात होने पर देवमार्ग से उस हा / समीप पहचता हुआ विश्व के सकल भोगत.

.. रहित होताहुआ, सकल वासनाओं के पारिपूरण ' . होजाने के कारण वासनाओं से शून्य होक ` पूणानन्द्‌ परात्पर परब्रह्म स्वरूप में स्थिति करता है। इस सब का स्पष्ट भाव यह है खा |

रूप अविद्या आदि का नाश हो जाता है। जन्म मरण आदि भी दूर होजाते हैं, से छुटे हुए आत्मा को किसीप्रकार के केश का अनुभव नहीं करना पडता हे इस अविश्यारुण पाश से सुक्त इए विना ओर जन्म मरण आरि

का तीसरा फल यह हे कि-उस की भावना से

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योग्य ऐश्‍वर्य का भोग करके उस में अभिलाषं

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| | समस्त पदार्थो सें विराजमान है, सकल विश्व | उनका ही अंश है, इत्यादि तत्त्व का जितना

| अधिक चिन्तवन कियाजायगा उतनाही

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| १1. अन्वय णदार्थ-भावार्थ सहित। (५३१

[रकारण हे, नित्य सनातन परमेश्वर सवेदा

ज्ञान फेळ्कर विश्व के समस्त पदार्था . में परमात्मा की सत्ता का अनुभव होगा। | सवत्र उसकी ही विभूति है और जहां | | देखो तहां वही विद्यमान हे. ऐसा ज्ञान.

| होकर जब-सकल पदार्थों में उसकी ही छबि है `

| वही. सर्वस्वरूप है, ऐसा ज्ञान उत्पन्न होजाता |

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| है, उस समय एक वस्तु जाती रहे, या कोई | | और वस्तु मिलाय तो इस लोटफेर _

उस को कुछ शोक वा. इषे नहीं होता हे | उस समय सर्वत्र समदृष्ति रखनेवाले जीवकी : अविद्यां का नाश होजाने से उस अविद्या के.

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| | | फाँसी के कटजाने के कारण जीवभाव ( जीवो.

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हौ ` से निविकार सुख पाता है, ओर फिर तच : ज्ञान के द्वारा उस सुख का परित्याग कखे जीव शाश्वती मुक्ति पाता हे ॥१॥

(९४) ` शेताश्वंतर उपानषद्‌ हु | जीव शरीरपात होने पर अविद्यारूप बडीभारी पाधि) को त्यागकर सकल ऐश्वर्यमय पर

मेश्वर के सालोक्य को पाता है और उस अह लोक के विचित्र धर्मों के कारण सकत

1 ` भोगों में तृष्णारहित होकर शाश्‍वती सुक्ति

रूप ब्रह्ममाव को प्राप्त होजाता है परपेशा का ध्यान करने से पहिले तो अतुल ऐश्यय

१] अन्वय-पदाथे- आवार्य लढवित (५५)

अन्वय और पंदार्थ-( भोक्ता ) भोगने “वाला ( भोग्यम ) भोगने योग्य ( ) और | ( प्रारितारम्‌ ) प्रेरणा करनेवाला ( मत्वा ) | मानकर ( एतत्‌ ) यह ( आत्मसंस्थम्‌ ) आत्म | गत ब्रह्म ( नित्यस्‌ ) नित्य ( एव.) ही

( ज्ञेयम्‌ ) जाननेयोग्य है ( हि) क्योंकि ( अतः परम्‌ ) इस से ऊपर ( किञ्चित्‌ ) कुछ ( वेदितव्यम्‌ ) जाननेयोग्य (न ) नहीं

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सब ( ब्रह्म ब्रह है १२॥

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(अत्ति ) हे ( एतत्‌ ) यह ( प्रोक्तम्‌ ) कहा हुआ ( त्रिविधम्‌ ) तीन प्रकार का (सवम्‌) `

( भावार्थ ) भोग करनेवाला जीव, भोगनें .. योग्य पदाथ और सब का नियन्ता परमेश्वर . इन तीनों का अभिन्नभाव से चिन्तवन करके | अर्थात सर्वान्तयोमी परमेश्वर के साथ जीव | और भोग्य पदार्थों का कुछ भेद मानकर |

` पर उस को जान लेने से अन्थ . किसी

| ५६) ` :; वता तर उपनिषद | - [ | निरन्तर भीतरी यत्न के साथ उस आत्मरि या पण का ध्यान करना चाहिये, वह हरसमा. आत्मस्वरूपमें स्थितर हतादे,आत्महषि होजा

.

आश्रय नहीं करना पडता है, आत्म तक:

` ज्ञान होजाने पर परम पुरुषार्थ की सि |

jl ती को सवेदा उस आत्मस्थित परमपुरु है के साथ आत्मा और विश्व के सक:

7 करके सकल जगत्‌ को ब्रह्ममय जानना चाहि | .. क्योंकि इसके सिवाय जीव को ओर कु

` होती हे, इसीकारण अपना हित चाइनेवालो

पदार्थो का अभिन्नभाव से चिन्तक

. जाननेयोग्य वस्तु नहीं है, जाने और समझ की वस्तु एक वही है, जबतक उस को स्‌ भाव से नहीं देखा जायगा तब तक शान्तिवा' [ 0. M को रि शा शा नह FRDigitlzed डस वु र्‌ | हा

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प्रछाहीं है, सकल प्राणी उस की ही बडी ॥भारी शक्ति के वश में होकर चलते हें, एक वह

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१} ` अल्वय-पदार्थमावार्थ सहित! (५७)

तात्पय यह है कि-ध्यान धारणा आदि के | द्वारा आत्मज्ञान होने से ही उस कासा. क्षात्कार होता है। सकल विश्व उस कीही

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इस कारण जेसे होसके तेसे उद्योग करके | आत्मज्ञान की प्राप्ति करना मोक्ष की इच्छा रखने . | वाळे का सब से बढकर कत्तव्य हे, जो पुरुष | अपने में आत्मा, के होनेका अनुभव नहीं कर : | [सकता है, उस का बाहर ब्रह्म को खोज करना . |

होने के कारंण उस का दुःख दूर नहीं होसकृता..

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~ / (५८) श्वेताखंतर उपनिषद | ब्रह्मपुराण में लिखा हे-“तमात्मस्थं ऽनु श्यन्ति धीरास्तेषां मुक्ति; शाश्वती नेतरेषाम्‌।! जो विवेकी पुरुष उसको आत्मा में स्थित ' देखते हैं उन को ही नित्य शान्ति मिलती हे ओरोंकोनद्दी॥ | आत्मा ही जीव का परम तीर्थ है, जिन्हें ने आत्मतीथ में गोता लगालिया एन को.औं ` . तीथा में जाने की आवश्यकता नहीं, आत्म ही जीव का परम ज्ञेय है, जिन्‍्हों ने आत्मा को जानलिया उन को जानने के लिये कुछ भी. शेष नहीं रहा, आत्मज्ञान के विना चाहे को _क्रिया;करो वह अळोनें भोजन की समात'

अन्वय-पदार्थे-भावार्थ सहित (५९)

| चान्तरात्माः॥' अथात्‌ आत्मा ही बडीभारी. | नदी है, संयम उस का पवित्र तीर्थ हे, सत्य. | उस का जल है, शील उस का किनारा हे,और |

| दया उस की तरंगे हैं, हे पाण्डुपुत्र | तुम उस

पवित्र तीथ: में शरीर और मन को स्नान

कराओ, उस पवित्र तीथ में स्नान करके अपने | अव करो; केवळ जल से अन्तरात्मा शुद्ध

ध्यान करने योग्य नहीं है, आत्माही आत्मपद

| | | |

हे अजराः

|

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को पाने का सब से बढ़कर कारण हे,आत्मन्ञान . (ही सब शान्तियों के प्रवाह का सूळ सोता है, . ।यही बात अति में कहीहे-“तदानीमोमित्यतेना- क्षरेण प्रमपुरुषमभिध्यायीत, ओमित्यात्मानं | ।गुज्ीत, ओमित्यात्मानं ध्यायीत, तदेतेत्यदनी- .

नहीं हो सकता आत्मा के सिवाय और कुछ |

यमस्य सस्य यदयमात्मा इति उस आत्म- | जन के समय इस अणव. अक्षर के,.द्वारा |

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` (६०) श्रेताशतर उपनिषदः . | है

प्रम पुरुष का ध्यान करे, इस प्रणव अक्ष के द्वारा आत्मा को उस के साथ युक्त करे

` इस प्रणव के द्वारा आत्मा का ध्यान |

एकमात्र पखह्मही सबका लक्ष्य और पाने योग

' है,क्योंकि वह आत्मस्वरूप से सबंध विराजमा हे

आत्मध्यान, आत्मविश्वास और अं | |

रति आदि ही घुक्तिपद को पाने का पर ` साधान हे १२. |

हर 2 और पदार्थ--( यथा ) जैसे ( योति'

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' १] अन्वय-पदाये-भावाथे सहित। (६१)

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।( गृहीतव्यः ) अहण करना चाहिये १३

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॥( वृह्णेः ) अग्नि की ( सूत्तिः ) सत्ति (न) ` नहीं (इश्यते) दीखती है ( लिङ्गनाशः) सूक्ष्म .. शरीर का नाश (व) मी ( ) नहीं ( एवं ). . ही ( भवति) होता है (सः ) वह ( एव) .. ही ( भवति) होता है ( तत्‌) तिस (उभयं ` ।वा-उभयम्‌ इव दोनोंकी समान (देहे) देह में ( प्रणवेन ) प्णवके द्वारा (आत्मा) आत्मा .

| ( भावाथ )-आत्माके अन्वेषण पूर्वक. | परजह्न के ध्यान करने का प्रधान अङ्ग प्रण | ही है। अतः प्रणव के स्वरूप का वणेन करते . इं कि-अरणि कहिये अधि को उत्पन्न करने ` वाले काठ मेंस्थित अग्नि की सूतिं दीख नहीं _

[सकती और उस अभि का लिंग शरीर (सुक्ष्म |! देह ) इस काठ में सर्वदा ही रहता है, जिस - | समग्र इस, काठ के. टुकडे के.साथ.-दूसरेयक :

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` दुसरे काठ को रगड कर मथन किया ज्ञाता! "मान आत्मस्वरूप अग्नि का दशन होता!

(६२) ` श्वेताश्वतर उपनिषद) `[४+ काठ के टुकडे को चिसकर मथा जाता हेत

` जैसे उस काठ में से अग्नि दीखने लगता!

तेसेही देइरूप काठ के साथ जब प्रणव हा

तब सूक्ष्म अवस्था में देहमें अहश्य भावते कि

अर्थात प्रणव साधन केवल्य से आत्मतां

जिसका इसरा नाम बत्नज्ञान है वह ज्ञाता: ज्ञाता हे इस कारण आत्मतत्त्व के पिपा

मोक्ष के अभिलाषियों को हर समय प्रणव १९ ध्यान करना चाहिये क्योंकि प्रणव की सा!

| ` १] अभ्वय-पदार्थ-भावार्थ सहित | (६३) अन्वय और पदाथे-( उपासकः) उपास

| (स्वदेहस्‌ ) अपने शरीरको (अरणिष ) | अग्नि को उत्पन्न करने बाला नीचे का काठ | (च) और ( प्रणवम्‌ ) ॐकार को ( उत्तरा-

| रणिस्‌ ) उपर का काठ (कृत्वा) करके (व्यान | | निमथनाभ्यासात्‌ ) ्रहचिन्तवंनरूप ध्यान के _

निमंथन कहिये वारंवार करना तिस के अभ्या- | (सले ( निशूढवत्‌ ) काष्ठ में शुत्तह॒प से स्थित |अझ्चि की समान ( देवस्‌ ) देव को ( पश्येत्‌ ) ` देखे १४॥ ` |

( भावाथ ) जो अपने शरीर को रगडने पर (अग्नि उत्पन्न करदेनेवाले नीचे के काठकी स- मान करके निरन्तर ब्रह्म का ध्यानरुप रगडा . 'लगावे अथात्‌ प्रणव का जप करताहुवा निर | नतर अह के ध्यान में निमग्न रहे वह शीघ्र ही . अपने में गुप्त अत से स्थित परबहा का. दशन

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( ६४) ता श्वतर उपनिषद्‌ [अ

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पाता हे काठ से काठ को विसमे से जैसे उसा स्थित गुप्त अग्नि बाहर निकलंकर मक होजाता है तेसे ही देइ. के साथ अथात के शब्द के लक्ष्य अधरोष्ठ के साथ प्रणव थन्‌ (अघर पर प्रणव का उच्चारण ) करने!

.' आत्मस्वहूप में विराजमान परज्योतिस्वरा ` परमदेव का दशन होता दै अथात पेरबहा ` पने में ही शुत्तमाव से स्थित हे और निरन्त ¬ प्रणवके कीत्तन से उसका साक्षात्कार होता | लिलेु तळ दाधनाब सापशपः लोहः स्वरणीऽ' चाग्निः एवभात्मनि गद्य तसा”. सत्यनन ` तपा योऽद

पृड्यात॥ १५॥

.. ` अन्बय् और पदाथर (तिलेषु) तिलों ( तैलम्‌ gt दधिनि ४४११ दुघि 1

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१) `` ` -अन्वंयं-पदार्थे-भांवार्थं सहित |... (६९) |

( सर्पिः ) घी ( स्रोतःसु ) खोतो में (आपः )

[काय -च `) और अरणी अरणि काठों में (अग्निः इव ) आग जेसे ( एवम्‌ ) 1 ऐसेही (यः) जो) एनम्‌) इसको ( अनुपश्यति) . देखना चाहता हे ( असी ) यह (सत्येन) |

| . (भावाथ.) जैसे तिलों में का तेल कभी || नहीं दीखता ओर कोल्हू में पेरे विना वह | | बाहर नहीं निकलता, दही में का घी जैसे

निरन्तर गुप्तमाव से दही में ही स्थित रहता | हे, मथे विना उसका दशन नहीं होता,

| पृथिवी के नीचे सोतों में का जळ निरन्तर .. अदृश्य रहने पर भी खादने पर. | मिळजाता दे, और अरणि नामक काठ में |

(0-0. Munkshu Bhawai Varanasi Collection. Digitized by eGangot cl १० ००

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है ` सेतेलघींआदि नहीं निकल सकता तेस

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(६६) ` श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ | [०

छुपीहुई अग्नि जसे दीखती ही नहीं, परन्‌ दूसरी अरणि के साथ चिसते ही वह शा अग्नि दृष्टि के सामने आजाती हे, तेसे हीजे उपासक सकल प्राणियों के हितको इच्छ करता हुआ सत्य के द्वारा तथा इंद्रिये और मा की एकाग्रताके द्वारा आत्मा का निरन्त अन्वेषण करता हे वह थोडे ही समय में इस साधना के बल से आत्मा में नियवरूप निगूढ पखह्म का दशन .करसकता हे, पेर मथने आदि के विना जेसे तिल दही आदि

सत्य तप आदिरूप आत्मसमाधि के - || आत्मस्थित परब्रह्म का साक्षात्कार होत! असम्भव हे आत्मा का अन्वेषण, आत. विचार, आत्मचिता, आत्तजिज्ञासा; औं आक्मरति आदि..ही “ररह, के .. निखच्छि हू

- १] अन्वथ-्पदार्थ-भावार्थं सहिंत। (६७) सुखरूपी मन्दिर में प्रवेश करने का सोपान. ( सीढी ) स्वरूप है, आत्मान्वेषण आदिरूप अवलम्बन के विना इस दुरारोह महल पर ॥| चढना असाध्य है अतएव ब्रह्मजिज्ञासु को सबसे पहिले सब प्रकार से त्रहाइष्टि करना चाहिये ३५॥ i

a टि 20 [न्‌ NAS क्षीरे | ५६ | लकल] तट्रद्यो | > 1 | | है Got हे ) 31 [त्स वि ।(॥' क्यु “३७ Dr 3 + है - LIT Se FES विहे है; ५५*६७ 83 3 & ¢ .

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| दूधमें ( अर्पितम्‌ ) स्थित ( सपिः इव ) घी की | समान ( सवव्यापिनम्‌ ) सव व्यापी ( आत्मा [| नम्‌) आत्माको ( अनुपश्यति ) दर्शन करनेका | यत्न करता हे (तेन) तिस करके ( आत्म विद्यातपोमृलम्‌,..), आत्मज्ञान, भोर मत

हे पै तै

RS िजयायाञ॒॒॒॒॒॒ा॒॒ाााायााध

पनिषत्परस॥१६॥ ` अन्वय और पदाथ-( यः ) जो ( क्षीरे) `

21: इन्द्रियादि को वश में करने का प्रधान |

का अधिकार है, जगत्‌ में आत्मविहीन को

7 कुछ भेद नहीं हे आत्मविद्या कहिये

(६८) ` खेताश्वतर उपनिबद्।- [ऽ

` (तत्‌) वह (उपनिषत्‌) उपनिषदों में “किया हुवा ( परं ब्रह्म) परंत्ह्म ( गृह्यते ) ग्रह ` 'कियाजाता है १६॥ | (| . ` (भावार्थ) दूध में का घी ही जेसे ' सारहेतेसे ही आत्मा सब पदार्थों में सारः सै व्याप्त विश्व के सब ही पदार्थों पर झु

. वस्त है ही नहीं। आत्मा ब्रह्म से पृथक्‌ नहीं

सर्वे व्यापी सव सारभूत ह्म से आत्मा $ | रे ` का नाश और मन तथा इंद्रियादि को जीत (उस आत्मरूपी पररह के अधीन हे, वी

|१] अन्वय-पदाथ-मावा्थ सहित (६९)

| ।करने से शीघ्र ही अविद्या आदिका नाश हो- | जाता है, वही ज्ञानयोग देने के लिये साधुओं . «को सत्कर्म करने की रुचि देता है, सब. उपनिषद्‌ इस को ही. महिमा का गान करते हैं, वह सब्‌ पदार्थों का सब

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हिंतीय अध्याय >A Oe | | | (हारः ) युजानः प्रथम मनस्तत्ताय ' | A आश ज्योति | | व्या अध्यासरत्‌॥

अग्नि के (ज्योतिः) तेज को ( निचाय्य . ` इकट्टा करके ( एथिव्याः अघि ) प्रथिवी ! ( आभरत ) लाता हुआ १.॥

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'तिजस्वी मात्तेण्डदेव मुझको तत्वज्ञान प्राप्त

दीतिमान्‌ अग्नि की ज्योति को इकडी परके मेरे शरीर में स्थापित करे, वा ठा

[थात्‌ तेजों के खजाने सविता देव अग्नि

गाग के अवश्य विष्ण

“यानकी रीति कहते हैं कि-ध्यान का प्रारम्भ

रने के लिये इस अकार प्रार्थना करे कि-पर-

ने के लिये ध्यानारम्भ के अथम काल से ही. रे ता को और बाहरी विषयों के ज्ञानको | | इब्न्यों को परमात्मा में संगुक्त करके और |

अन्य अडुभइ कत्ता देवताओं की विश्- ` काशिका शक्ति को इझ में प्रकाशित के, .

को दूसरी ळा यह है कि-ध्यानके ` पमा काळ परमात्मतत्त्त में मन लगाकर | | वाही री”

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(७२ ) श्वेताश्वतर उपनिषद) |

. के ज्ञान से चित्त को रोककर और रका नत सावधान होकर परमात्मा में मन गाता 0 | तेजस्वी सविता देवता उस ज्योति परमात ||

तेजोमय स्वरूप अग्निको ओर को सृष्टि क; इस सकल ब्रह्माण्ड को तेज के प्रकाश पे

- काते हैं इन्द्र चन्द्रादि अन्य अशग्रह

. देवगण. उस परात्पर परमात्मा के है . बल से ही अपने प्रभुत्व का प्रकाश करस हे।इसजगत्‌ में जो कुछ आश्चय देखो, 7 आता है, इस असीम ब्रह्माण्ड केवा . . स्थल पर जो कुछ विभूतिमय पा .. . देखते हैं, वह सबही इस परम पुरुष की. `

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| अन्वय और पदाथ ( वयम्‌) इम (युक्तेन)

आज्ञा में ( सुवगेंयाय-स्वगोय ) स्वग पाने

३] ` अल्वय-पंदार्थभावाथे सहित (७३) |

।रभात्मा में. लगे हुए (मनसा) मन करके . | सवितुः ) सूर्य (देवस्य ) देव की ( सवे) |

'$ निमित्त अथवा स्वर्ग प्राप्ति के हेतुभ्रत ध्यान | ( शङ्षत्या) यथाशक्ति ˆ प्रयतामहे ) प्रयत्न.

( भावार्थ ) हम परमात्मा में संयुक्त और | गत्महष्टि के लिये परमसांघन अन्तःकरण के . साथ परमदेव सविता की आज्ञा में रहकर | परमार्थलामं के लिये अथवा स्वगआति के |

लिये परमात्मा में मन लगातेहुए देह ओर. इन्द्रियों को हढ करेंगे उस समय परमाथ प्राति | EE

(७४) श्ताश्वतर उर्पीनषद्‌। |

करेगे, ऐसे हृढ़निश्चय के साथ आत्मचिन्तः आर आत्महंष्टि करसकने पर पुरुष अशा आनन्द पाता है

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` अन्वय और पदाथ-( सुवः. स्वर्ग | (यतः ) जानेवाले ( चिया ) रम्बा कै 2 करके ( दिवम्‌ ) एकमात्र चेतन्यस्वरूप (ब अको (ज्योतिः) प्रकाशित ( करिष्यत ... ` करनेवाले ( देवाच्‌) इन्द्रियों को (मनसा ) कर युक्त्वाय ) युक्त करके ( सविता ` सूयदेव ( तान्‌ ) उन को ( प्रसुवातु ) करने! आज्ञादं॥३॥ .. (१

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| २] ` अन्कय-पदार्थ-भावार्थ सहित। (७५) पि

|

( भावाथ ) स्वगं अथात्‌ पूर्णानन्द ब्रह्म की ओर को जाने के निमित्त उद्यम और सम्यक . प्रकार से तत्वदशन के द्वारा अनन्त ज्योतिःस्व- |

रूप पंरंबल्न को प्रकाशित करने में समथ |

| इन्द्रियों को मनसे संशुक्त करके अथात बाहरी .

ओर भीतरी तत्त्वा को .एकसूच में बाँचकर, |

| जिस से कि इन्द्रियें निरन्तर तेसा काम ब्रह्म

| का ध्यान, मनन आदि) करसके, योग के

| अधिष्ठातृदेव सविता, उन इन्द्रियों को तेसा

' करने की आज्ञा दें तात्पय यह है कि-ध्यान

के आरम्भकाल में सूयदेव के समीप फिर ऐसी |

| प्राथना के मिष से आत्मदृष्टि, आत्माइसन्धान

ओर आत्मत्याग का अभ्यास करना होगा.

' कि हमारी सब इन्द्रिय अपने विषयोंसे |

हटकर सदा परमात्मतत्त्व की खोज में लगें, |

| अथात्‌ हमारी इन्द्रियों के जो नित्य ग्रहण .

)' हा TS पावर पछिको

CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangot

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झैँ समर्थ हो, हम इधर उधर जोकुछ दे तेरे

` ` परिणाम में अशान्ति देनेवाला है इस सं

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७६) शवेताश्‍वतर उपनिषद्‌ [अः

1 के

करने के असत्य विषय हं उन. सबसे ट्क वह अमृतस्वरूप सत्य विषय को अहण करे

सुनते हँ,और विचारते हें वह सब अनित्य

में वास्तविक देखने, सुनने और विचारने यो वस्तुएक हुँ) तह सत्य) दशेनीय; रने

1 ` सब प्रकार के बाहरी विषयों से हटकर |

° २] ` अन्वब-पदार्थ-भांवार्थ संहित। (७७)

प्रकार उपासना से पहिले चिन्तवन करके बाहरी

प्रवृत्ति को अन्तर्मुखी करसकने पर उपासक के

मार्ग अतिसुगम समतल नंगरवीथी की समान प्रतीत होतेलंगंता हे डे

७“ मन्‌ उतबु्चते थियो क्या बिगर

||

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रिक तत्त्व को अपने ज्ञान का विषय करें इस |

` अन्वय ओर पंदाथ- ये )जो ( विप्रोः) विद्वान्‌ ( मनः ) मन को ( युञ्जते) परमात्मा |

! . CGC-0.Mumukshu Bhawan Collection. Digitized by eGadngot

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इन्द्रियों को ( युञ्जते ) परमात्मा में संयुक्त / करते हँ, ( विप्रस्य ) ( संवव्यापी ) ( बृहत a

1,००९ %

| (७८). श्रताश्तर उपनिषदे (क महान ( विपश्चितः ) सवेज्ञ ( विदुः ) सवित ` (देवस्य) देव की ( मही ) परमप्रशंसनीः ' (पारेष्ठतिः ) उत्तम स्तुति ( विधेया ) करां

' ` चाहिये (वयुनावित्‌) सब का साक्षी ( एक; ' अद्वितीय (इत्‌ एव) ही ( होत्राणि ) इवना। : क्रियाओं को (विद्धे) विधान करताइआ। ` (मावार्थ)-जो विद्वान्‌ मन और सका ईन्द्रियों को. बाहरी विषयों से खेंचकर त्या में लगासकते हे, उनको चाहिये कि सः ब्यापी, महान्‌ सूयदेव की परमप्रशंसनी। स्तुति अवश्य करे, क्योंकि प्रम प्रज्ञावा ` सविता देवता ही जगत के व्यांपारों के एकम साक्षी है वह सकल कर्म्मों को जानते है ., वह ही इवत आदि सकल क्रियाओं ` -तनिभान.कसतेः है परथ-ज्ञावेन्दियों-सहित

२]: अन्वय-पदार्थ-भावार्थं संदित्त। (७९)

को. सावधान करके अहास्वरूप सूयेदेव की. प्रमदीत्ति का ध्यान करते ही, उस विश्व- `

प्रकाशक पुनरावृत्तिरूप परमगाढ अन्धकार | के विनाशक परमपुरुष की परमज्योति को हृदयङ्गम किया जासकता दै अतएव योग

जीवन विप्रो के निमित्त सूर्यदेवकी उपासना ही.

केवर्यप्राति का मूल कारण है॥ ४॥ .

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अन्वय और पदार्थ-( वाम्‌ ) तुम्हारे ( पूर्व्यम्‌ ) पुरातन ( ब्रह्म ) ह्म को ( नमोभिः) ` | नमस्कारो से युजे ) समाहित करता ई।

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(८०) शताखतर उपनिषद - [

( छोकाः ) स्तुतियोग्य परमपुरुंष ( सूरेः |

साधु के ( पथि ) मार्गमें ( एव ) हो ( वि

. विःआयातु) विशेषरूप,से आवे ( अमृतस्य) .. ब्रह्म के ( विश्वे) समस्त ( पुत्राः ) पुत्र (ये) `. जो(दिव्यानि) दिव्य ( धामानि ) थामों को ( अधितस्थुः ) अधिष्ठित करके रहे ( खण .. न्ति शृण्वन्तु) सुनो है ` (भावार्थ )-हे अमृत के पुत्रो ! में तुम्हा निरन्तर ब्रह्म को चित्त प्रणिधान,आदि के द्वार ~ समाधान करता हूँ वह प्रणिधान करने . योग्य परमं पुरुष मेरे दृदयमें प्रकाशित हो. ... मेरे हृदयरूप सन्मार्ग में विचरो हे दिव्यलोक वासी अमृत के पुत्रो! तुम मेरी प्राथना को

. छुनो। का यह अर्थ भी है। ग]

हँ २५% अच पदारथ-भावार्थ सहित ( ८१ ) करके अन्तः करणमे प्रकाशित अनादि अन-

न्त ह्म का में सबान्तः करण के साथ प्रणि | घान करता हूँ में जो कुछ कहता हूँ अर्थात

| मेरे कलुषित कसे जो कुछ बाहर

|| निकले वह सब वाक्य अह्मविषय के ही || हों, भ्र के गुणों का कीत्तन करने के सिवाय

में और कुछ बोलें ही नहीं, मेरी रसा

ना अन्य सब ओर से हटकर सवदा पर-

| मात्मा की कथा रूप अमृत को पीने में छगी | रहे हे अमरधाम के निवासी अग्रतसन्तांनो ! .

।.सुझे ऐसे भाव का अवलम्बन करने की | सामथ्य देने का अनुग्रह करी ५॥ |

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| सोम fe 4! गो > सञ्जायते ७८ 1 सञ्जायत मन: ६॥ ` 00-017070॥651)

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1. (८१) _ श्रेताश्चतर उपनिषद [नळ

अन्वय और पदाथ-९ यत्र ) जहाँ अग्नि ( अभिमथ्यते ) अरणियों को रगडकर उता ' कियाजाता हे यत्र) जहां ( वायुः) वा] ' ( अधिरुध्यते ) अग्नि कुण्ड में रोका जात हे(यत्र) जहां ( सोमः) सोमरस ( अति . रिच्यते) अधिक होता हे (तत्र) तहां ( मन ' प्रवृत्ति सञ्जायते) होतीहे ॥६॥ | ` ` ` ( भावाथ )पहिछे श्लोकों में सूयोत्मक तेजे मय ब्रह्म की प्राथना का. वर्णन कियागया जै फिर प्राथना करके, चित्त की कामनाओं ~ ` वशीभूत होने के कारण भोग. के लिये योगां ` प्रबृ्त होते हैं वह उस भोग को पाजाते। . इसलिये तहां दो अरणियों के घिसनेसे ' ` उत्पन्न होती हे अथात्‌ जिस यज्ञ में अग्नि१ .' - द्वारा मथन भरण आदिका काय सिद्ध हें | || है, इनक्ष भ्प्र अभिन्न को पूज्वलित | |

३] अन्वय-पंदार्थ साथ सहित। (८३) . गर. के लिये यक्षकुण्ड में और रेचक आदि क्रिया . १. के द्वारा देइ में वायु को रोका जाता हे, उस यज्ञ में चन्द्रमा स्वयं यज्ञ के काय को पूरा करते हें। अथवा जिस यज्ञ में सोमरस का ' अभाव नहीं ऐसे सब सामगीथुक्त अग्निष्टो- | मादि वेदविहित स्वर्गसाधक यज्ञादि कमे में

` ज्ञानयोग के अनधिकारी पुरुष को प्रवृत्ति ) | - उत्पन्न होती है, तदनन्तर क्रम से कर्माबुष्ठान के कारण ज्ञानरूपी. नोका का आश्रय प्राप्त . | होकर दुस्तर कमेसागर को तरतेहुए, जिसका | | पहिले कभी अइमब नहीं किया ऐसे आनन्द | रस में निमग्न होजाते दै, और उन का कम | बन्धन करजाता हे, ज्ञान योग में जितका . गम्य हो उसके लिये मोडुन ही ज्ञान . पाने का सब से श्रेष्ठ उपाय है॥

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(८४) . धेतांश्वतर उपनिषद.

इस कारिका का अर्थ दसरे प्रकार से भी होसकता है जिस में ध्यानरूपी मथन से पर्‌ मात्मा का दशन होता .है, प्राणायामादि हे द्वारा रुका हुआ वायु अव्यक्त शब्द करता? ' ओर सोम अनेकों जन्मों में सेवा करने के कारण . बढताद, वह यज्ञ, दान, तपः प्राणायाम . समाधि आदि से शुद्ध हुआ अंतःकरण पूर्ण ` ` नन्द्‌ अद्रतीय ब्रह्माकार होजाता है ६॥ |

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| २] अन्वय-पदाथ-भावाथ सहित। (८५) .

| संमाधिरूप आश्रय को ( छृण्वसे कुरुष्व ) | कर ( एवं कुतः ) ऐसा करते हुए ( ते ) तेरा | ( पूवम्‌, ) .पहिळे आचरण .कियाहुआं कमे ( नहि.) नहीं ( अक्षिपत्‌) चित्तमें विक्षेप

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क्रगा ७॥

( भावाथ ) हे साधक ! पृहिरे उपदेशों में जो सूर्यात्मक बह्म की उपासना का वर्णन | हुआ है उसके अनुसार सूय देव के अनुग्रह से सनातन त्रह्म में अत॒राग वाला होकर उसके | ध्यान आदि में मन को लगा;ऐसा करने से तेरा पहिले किया हुआ क्रियाकलाप तेरे चित्त में | | अशांति को न. बढा सकेगा ऐसा करने से स्मतियो में कहीहुई या वेद में विधान कीहुई $ क्रिया में बन्धन नहीं होगा ! सूर्यात्मकातेजो _ || सय रहम के चिन्तवन से तेरी ज्ञानाग्नि प्रज्व

Moro: “Muriuksh Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotr

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पी (८९ ) बता बत उपानच अन. लित होकर तेरा सब कमेकलाप भस्मी __ ही जायगा.॥७॥. |

| ' अन्वय और पदाथ ( विद्वान्‌) विवेक

` ` (निसन्नम्‌ ) तीन हैं ऊंचे जिस के ऐसे ( शरी' रम्‌) शरीर को ( सम्‌) समान (स्थाप्य _ स्थापन करके ( इंद्रियाणिं) इंद्रिय

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` (सोति. सोतों को. (मतरेत ) पार. होप

१. अन्वय-पदार्थ-भावाथे सहित। (८७)

(भावार्थ) बहाज्ञानी महात्मा वक्षः स्थल, ग्रीवा और मस्तक इन तीन स्थानों पर ऊंचे हुए शरीर को सम तोल आसन पर स्थापन करके . और इंड्रियों को मनके द्वारा हृद्य में अली प्रकार प्रवेश कराकर बल्नप्राप्ति के उपायख्व- | | रूप अकार स्वरूप डॉगी की सहायता से. ` इस भयानक संसाररूपी सागर के पार हो || जाते हैं | | | जा क.

व... अन्वय ओर पदाथ-( युक्तवेष्टः) शा्रा- | | नुसार हे कत्तेब्य जिसका ऐसा (सः) वइ | साधक ` इह) इस विषय में ( प्राणान्‌) `

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(८८) ` श्वेताश्वतर उपनिषद्‌! | ज० प्राणों को ( प्रपीडय) संयत करके ( प्राणे).

| . प्राण वायु वा मन के (क्षीणे) शक्ति हीन होने. पर ( नासिकया) नासिका करके ( उच्छवसीत) श्वास लेय (विद्वान्‌ ) विवेकी ( अप्रमत्तः( प्रणिहित चित्त होकर ( दष्टाश्वयुर्तम्‌) उच्छु |

-._ खल ब्रोडों से युक्त ( वाहम--इव ) रथ की समान ( एनम्‌) इस (मनः ) मनको ( घार. i i येत ) धारण करे १॥ | Er चै (भावार्थ ) इसके अनन्तर मन की स्थिरता

/ का प्रधान उपाय और ब्रह्मप्रातति के सर्वोत्तम. आदिकारण प्राणायाम की विधि कहते ह| कि--साघक इस प्राणायाम क्रिया के समय प्राणवायु को रोकता हुआ अङ्ग प्रत्यङ्ग 'आ| की हा हालत आदि सकल क्रियाओं को रोककर अथ जितने शरीर के व्यापार सब का

२] ` अल्वयर-पदार्थ-भावाथे सहित (८९)

| के छिडों से श्वास खचने छोडने को क्रिया करे | झुख की ओर को श्वास खेचने या छोडने की - क्रिया करे। जेसे सारथि खूब चित्त ढगाकर | उद्धत घोडे जिसमें जते हों ऐसे रथ को बाग डोरों को पकडता है): तैसे ही विचारवान्‌ | पुरुष भी अत्यन्त स्थिर चित्त होकर बहुत कुछ सावधानी के साथ इस चंचल मन | | को धारण करे अथात्‌ रोके जब मनके ऊपर प्रभुता होजाय तबही दुगेम साधनमाग अति सुगम होजाता हे मन ही सकल व्यापारो की प्रवृत्ति और निवृत्ति का कारण हे जो मनो | राज्य के राजा हे उन को मोक्षरूपी रत्न अधिक | दुलभ नहीं है ९॥ ` के

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(९०) चेंताश्वतर उपनिषद 1 [ अ~ ला - कट » I

100 ५1१ + ® - नकल ७. ~ ळच ¢ त्‌ x छ्न $ छ? ह्‌ 400716. ०० जा | |] ००) रः गद. ९१, १. 04 | \) ९०६. "१ क्क > ०% 7 3 I क” ३५, ७. |

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1 और पदार्थ सभे ) समतल < (शचौ) पवित्र ( शकरावद्विवाळुकाविवजिते) . छोटे पत्थर अग्नि और पत्थर के इरेसे | रहित ( शब्दजलाश्रयादिमिः ) शब्द जल और | आश्रय करके रहित अथवा मधुर शब्द,स्वच्छ | है ' जल ओर कुलों के आश्रय करके ( मनोरतु-. / इले ) मन के अजुकूछ ( तु) नहीं ( चकः | ^ पीडने) चक्षको पीडा देनेवाले ( गुहानिवाता- .... अयणे)गुफा मेके वायु रहित के स्थान में (योः :

जयेत्‌) परमात्मा में चित्त को लगावे गा |

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(भावार्थ ) समतल, परमपवित्र और पत्थर .'. के इकडे, छी अग्नि तथा पत्थर का चूरा आदि | ... रते-सेरहित/'अक्षति' की" प्यारी "सतन" पक्षी

f | SE 9:41)

| अन्दयःपदार्थ-भावार्थ सहित | (९१)

| आदि की मधुर कुहुक, स्वच्छजळवाली नद्यिं या स्नेह को बषानेवाले झरने और पत्तों से | रहित आश्रय, अथवा प्रकृति के बनाए लता

| कुज आदि के द्वारा चित्त को शांतिदेनेवालीं,: | | देखने में सुन्दर शुफाये वा चित्त को विक्षेप

नेवाळे वाशु के प्रवाह से रहित स्थान में,

| साधक चित्त को परमात्मा में लगावे अर्थात्‌

ऊपर कहेहुए रमणीय स्थान में एकाग्रचित्त

. होकर सिद्धि की चाहनावाले विद्वान्‌ को अन-

सन होकर ब्रह्म के चिन्तवन में तत्पर होना चाहिये 2

. हार ना नलानढाना खचात. Beene एतान्‌ नि पाणे पुर्तराण ब्रह्षण्यशिव्यति RRL ७०७०००

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`. घुऔँ, सुर्य वायु, ओर अभि के ( खंधयोत-ि

और चन्द्रमा के एतानि) यह ( रूपाणि रुप ( ब्रह्मणि ) ब्रह्म के विषय में ( अभिव्यक्ति ..... कराणि ) ब्रह्मसाक्षात्कार के पूर्वाभास

(९२) `: श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ अ. अन्वय और पदाथ-( योगे.) योग करे के समय (नीहारधूमाकोनिलानलानाम्‌) कुर

त्‌-स्फटिकशरिनाम्‌) यटवीजना विषो

0९ | स्प 111. 0७, =.

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! तेज का पुजन दीखनेलगता है, क्रम से बहुत

| | | है,ऐसा माळूम होता है कि-जगत्‌ में ज्वालामय

| खद्योतों से भरा हुआपता, कमी विजली की

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| हुआ सा प्रतीत होताहे,कभी सन्मुख पूर्ण चन्द्रमा

2 की अमृतधारा को वरसाने वाली चांदनी दीख . ती है; यह सब योग साधन में लगेहुए साव-

हँ १-८ अन्बय-पदार्थ-भावा्थ सहित (९३) ` | ही गरम वायु के प्रवाह का अनुभव होनेलगता.

वायु चलरहा हे किसी समय आकाश मण्डल |

" दमकवालासा प्रतीत होता हे, और फिर कभी | स्वच्छ स्फटिक की प्रभा से जगत्‌ मण्डल भरा .

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| पानचित्त साधक की योगसाधना के लक्ष्य | (ह्म आविर्भाव का पूर्वाभास दिखाते हें। साधक.

अन्न के प्रकाश के पहिले चिहस्वरूप इन .

(९४) ` श्वेताश्वतर उपनिषद) . [Nu

. बाहरी विषयों से निलिप्त होकरशीभ ही त्र __.. पदकोप्रप्षहोजाताहे॥9१॥ |

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1010 कि 201 ग्रसय 5 शरी . अन्वय ओर पदार्थ ( पथ्व्यतेजोऽनिलेहे ` प्रथिवी, जळ, तेज वायु और आकाश के ( स] / त्थिते) योगज्ञानगम्य होने पर ( पश्चात्मके ` पाँचभूत से उत्पन्न ( योगगुणे) योगगुण। ` (तते) प्रवृत्त होनेपर ( योगाञ्निमयम्‌ ) ] |

प्राप्तहुए (तरय ) तिस को ( रोगः ) (न).नहीं( जरा) बुढापा (न 21: `, ०० हाखम) दुख ममता विष्हेकी' ..

महाभ्रत से उत्पन्न योग के गुण की प्रवृत्ति ।होजाने पर साधक का शरीर योगहूप अग्नि से व्याप्त होजाता है, जिस समय साधक

) तिस परमकान्तिमान्‌ योगशरीर को पाजाता . है उस समय इस के शरीर के सकळ दोष इस्‌. अग्नि में भस्म होजाते हें योगशरीर को :

| पारण करनेवाला साधक चिरकाल के लिये | आध्यात्मिक, आधिदेविक और आधिभौतिक

तीन प्रकार की विपत्ति से रक्षा पाता है, उस का रोग, बुढ़ापा ओर इःख चिरकाळ के

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गम क्त हे 2. ~ क्क Rg

३] अन्वथ-पदार्य-भावार्थ सहित ( ९५ ) | (भावार्थ )-पृथिवी, जळ; तेज, वायु ओर |

| आकाश इन पचमहाभूतां के विषय का योग- " ज्ञान उत्पन्न होने पर और पृथिवी आदि पंच .

लिये योगाग्नि में भस्म होजाता है | ऐसी | 'पोगपवृत्तियो में से यदि सब नोकर किसी

3) | 0) .. शैताश्वतरे उपनिषद्‌

का हलकापना ( आरोग्यम्‌ ) रोग होर ग्र / . ( अलोडुपत्वम ) लोभरहित होना ( वण 7 ` सादः)रंग की उज्ज्वलता(च)

ला ला (र)

`. को. (प्रथमाम्‌ ) पहिली ( योगपवृत्तिम्‌) का

1 प्रवृत्ति | है (बदति ) कहते | किक ड्र | i

२12 अन्धघ-पदार्थ-मावार्थं सहित (९७)

|... ( आवाथ )-अवृत्तयोग साधक के शरीर मे. 'इळकापन, रोगरहितपना, कांति. होना, स्वर | ७, मधुरता, सुन्दर गन्ध और मल सूत्र की कसी को ही योग के तव को जाननेवाले . | विद्वान्‌ योग की पहिली प्रवृत्ति अर्थात्‌ फल कहते हे योगग्रवृत्त पुरुष में सब से पहिले | लक्षण प्रकट होते हैं। इन लक्षणों से ही | सुख के विषय _

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अन्वय और पदार्थ-( यथा) जैसे ( मद्या

पदा ) सही से ( उपलिप्तमू ) मलिन किया.

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(९८) ` बेताशतर उपनिषद्‌ [भ हुआ (पश्चात्‌ ) पीछे ( लुधातम-सुघौतम्‌| ` अढीप्रकार घोया ( तत्‌) वह तेजोमयम्‌। दमकता हुआ ( जते). शोभा पाता (त्वा तद्वत)तिस की ही समान(आत्मतत्त्वग| ` आत्मतख को (प्रसमीक्ष्य ) उत्तम रीति पे ` दख (एकः) एक (देही) शरीरधारी ( कृता! ' शुः) कृतकृत्य ( वीतशोकः .) शीकरहि

) `. (भवते) होता हे ॥३९॥ “| _ (वाथ) जैसे दूमकताइआ सुवण घातुका दुकडा पहिले मही आदि के लेप

मैला होजाने पर भी, पीछे से भले प्रकार थी

. डालने से अर्थात्‌उतको जल में था -अ झैँ स्वच्छ करने पर वह फिर तेसा ही दुम `. द्वार दीखने लगता है तैसे ही संसारताप | .. महिन हुए मनुष्य आत्मतत्व की खोत करा / , i आत्मा शहत्म को, जवि,

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हि, ` ` अन्वय-पदारथ भावाय संहिंत। (९९) | शोक ताप से छूटते हुए कृताथे होजाते हैं, उन

खोजी महात्मा. ही दुलभ आत्मतत्त्व का दर्शन करके अतिदुलूम मनुष्य जीवन की

कत ते हं |! 4. iT a ३३८ जे - AT ००७ | + » १३४७० ०९. क्क हा “र 9 १000 MA “| १६ a RT || |) | | | 4

की सब मलिनता आत्मतत्वदशनरूप अग्नि. मे दग्ध होजाती हे अथात्‌ एक आत्मतत्वके ..

साथकता करतेहुए मोक्षसागे के बटोही होस-

Ig म्याक

अन्वय और पदार्थ-( यदा ) जब (हु) `

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तौ के युक्तः ) योगयुक्त साधक ( इह) यहा. दोपोपमेन ) दीपक को समान आत्मतत्त्वेन) `. म्ल बुवृक्केद्वारा “नह्यत, ब्रह्मता. को. fest

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1212 ( मुच्यते )छठ जाता है 3९ ॥... “20 ` ` `` ( भावार्थ) जब योगयुक्त साधक, दीपक _ की समान स्वप्रकाश स्वरूप | ` द्वारा परमात्मतत्त्व का दर्शन करसकता ह|

` बम्धनों से 'छून्कर युक्ति पाता है। ज्ञाने ' साधक को जिस समय में ही अद्य हूँ, ऐसी अभे ` दइबुद्वि होजाती दे, उच्च समय उस को ब्रह्म __ त्याद्वाकारहोता. है। से, जानवान्‌, मुहा

यु (१००) ` श्वेताश्वतर उपनिषद्‌! [ भ~

` ( प्रपश्येत्‌ ) देखे (तदा ) तब ( अञ्जम्‌

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अजन्मा ( ध्ुवम्‌ ) सनातन ( सवत त्त्वेः )अविः द्या और उसके कार्यों से ( विशुद्धस्‌ ) स्पश कियेहुए ( देवस्‌ ) परमात्मा को (ज्ञात्वा जानकर ( सबपारेः :) सकल , संसारपाशों से

उस समय वह सनातन, अक्षर अविद्याःकं| छत के दोष से रहित सवतच्तों से पर पर मात्मा को जानकर सब: प्रकार के संसार के

२] अन्वय-पदार्थे-भावाथे साहित (१०१). को फिर संसारबन्धन में नहीं पड़ना पड़ता | है। उस की ज्ञानरूप तीखी खड्ग की पेनी नोक से सब प्रकार की फांसी के टुकड़े

होजाते हैं और बह मुक्ति पाकर चिरकाल को कृताथ हे दी १५ 10020.

__ अन्वय और पदाथे-( हि) निश्चय करके ` (एषः ) यह ( देवः ) परमात्मा ( प्रदिशः ) प्वादि दिशा ( अबु सर्वाः ) अग्नि आदि उप- ` दिशा हें (स हि) वह ही ( पूर्वः ) प्रथम

(जातः ) उत्पन्नहुआ (स ) वह ही (गर्म) `

-गम्‌ में ( अन्तः) भीतर है (सति) वह ही io

(१०२) श्वेताश्वतर उपनिषद। (१. ग्य |

` (जातः) उत्पन्न हुआ (सः ) वह ( जनि ष्यमाणः ) आगे को उत्पन्न होगा ( सबंतो मुखः ) सब प्राणियों की ओर मुखवाला है (जनान्‌ प्रत्य ) सब प्राणियों के पीछे _ ( तिष्ठति ) स्थित रहता दै॥ १६ | (नावाथ) आत्मतत्व के द्वारा परमात्मा ` को जाने; यह पहिले कहा: हे: तिसकी रीति | कहते हैं कि-यह परमदेव परमात्मा दी एवांदि ' सकल दिशा और अग्निकोण आदि उपदिशा / | है, अर्थात यह सर्वदा सब दिशाओं में विराज | ` मान है, यह सब का आदि है क्योंकि यह ही ` सब से पहिले हिरण्यगभरूपसे जन्मा दै, यह ही गी सब के भीतर वर्तमान दै जगत्‌ में जो कुछ _ भी उत्पन्न हो वह सब इस का ही एक रूप ` यह ही बालकरूप से जन्म धारताहे और आगे ` कोमी यहपुरसात्माही जन्म धारण, करेगा, यह

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४२] |... अन्धय पदार्थ-भावार्थ सहित। (१०३)

ही सवदा सब प्राणियों में स्थित होकर विश्व के सब प्राणियों के पीछे वतेमान रहता दे,यही | कम हे, इस के सिवाय जगत्‌ में और कुछ . नहीं है, एक यही तत्‌ है, और जो कुछ ` हम देखते या सुनते हे वह सब परमदेव परमात्मा . को परछाहों मात्र है, ऐसे चिन्तवन से आत्मा | का परमतत्त्व प्राप्त होता है १६

` अन्वय और पदाथे-( यः) जो ( देवः) ` देव ( अगी ) अग्नि में है (यः ) जो (अप्सु) - जल में है( यः) जो ( विश्वम्‌ ) सकल (ञ्चुः वनस्‌) भुवन मे { आविवेश ) प्रविष्टः इआ | | यः जो, ( ओषध्रीषु ), षो नमे, (य) |

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(१०४) श्ताधतर उर्पानिषढ्‌ [अ०- ` जो ( वनस्पतिषु) वनस्पतियों में है ( तस्मे ) | | तिस ( देवाय ) देव के अर्थ ( नमोनमः ) वार| वार नमस्कार है ॥१७॥. `. ` = ( भावार्थ ) योगसाधन आदि की. परमात्मा को प्रणाम भी करना चाहिये सोई कहते हैं कि-जो परमदेवता अग्नि का तेजःस्व। - सूप जलका शीतलता स्वरूप सक्छ संसारम ) ''एडपका आश्रय दण्डस्वरूप और जो

में तथा अश्वत्थादि वृक्षों में निरन्तर रहता है . उस विश्‍वात्मक मुवनसूल परमात्मा को वा| ' ' बार नमस्कार हे १७ ` | इति शेतावर उपनिषद्‌ का दूसरा अध्याय समा॥ |

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अन्वय और पदाथे-( यः ) जो ( एकः ) अद्वितीय ( जाल्वान्‌ ) जालरूप मायावाला ( इशिनीभिः) अपनी शक्तियों से ( इशते-ष्टे ) .. नियमित करते हैं सवान) सब ( लोकान्‌) लोगों को ( ईशिनीभिः) परमशक्तियों से इशते-इष्टे ) नियमित करते हैं ( यः) जो ( इ- डवे) जगत्‌ की उत्पत्ति के समय ( सम्भवे च) पालन के समय में भी ( एकः एव) एक ही . हेतुः ) करण ( ये ) जो (एतत्‌ ) इस प्रमा-

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(१०६) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [ अ०- ¦

त्मा को ( विदः ) जानते ह(ते) वह (अमृताः) अमर ( भवन्ति ) होते

( भावार्थ) जो अद्वितीय, मायांवी, परम- | पुरुष अपनी परमशक्ति के बळसे हृ अदृष्ट सकल पदार्थों पर अपनी प्रता चलाते हें जो अपनी उस मायामयी शक्तिके द्वारा त्रिलोकीका पालन करते हैं। जिन एक _ परमात्मा से ही सकल जगत्‌ की उत्पत्ति और | ' रक्षा होती है अर्थात्‌ विश्व का उत्पन्न करने ' वाला और पालन करनेवाला जिन के सि

. दूसरा कोई नहीं है ऐसे दुरत्यया मायावाले.

' प्रम शक्तिमान परमात्मा को जो. जानते है

. वह मरणधर्मी होकर भी अमर पद के अघि कारी हैं.॥ दिसो 0000000

३] अन्वय पदार्थमावार्थ सहित। (१०७) |

अन्वय आर पदाथ-( हि)्योकि(इुरः) सृष्टि आदि करने वाला इर (एकः) एक है( यः) जो ` ( इमान्‌ ) इन (लोकान्‌ ) लोकों को) इंशि- . नीमिः ) परम शक्तियों से ( ईशते इष्टे ) निय- ` मित करता है ( अतः बल्लतत्त्वज्ञाः) इस कारण ` ब्रह्म के तत्त्व को जाननेवाळे ( द्वितीयाय) . दूसरे के निमित्त (न ) नहीं ( तस्थुः ) जमे (सः) वह ( जनान्‌ प्रत्य्‌ ) पुरुष रके `प्रति ( तिष्ठति ) स्थित हे ( विश्वा) सकल ` ` (अुवनानि ) अुवनो को ( संसज्य ) उत्पन्न | करके ( गोपाः) रक्षक (भवति) होता दै ie ) प्रलय .काळमें ( संचुकीप ) `

® ५०६३८ ७1 है | ' कोप में. भस्करुअछुय-करत्ानहे ७७०७७ | ८5 कर त्‌

( १०८) खेतांश्वतर उपनिषद्‌ [०- | (भवार्थे ) सृष्टि)स्थिति और प्रझय के करने- | वाळे परब्रह्म ही अपनी परम शक्तियों को सहा- | यता से इन सकल अपनों पर प्रथुता रखते हैं, | इस कारण ही तत्त्वज्ञानी पण्डित विश्व की | रचना के विषय में एक ब्रह्म कोही कत्तों| ' मानते हैं, उन के मत से विश्व की रचना के. कार्य में ब्रह्म के सिवाय दूंसरा और कोई | नहीं हे वह शक्तिमान परमपुरुष नियम के. साथ हरएक पदार्थ के भीतर विराजमान है यदि | शात्र की बोली में कहाजाय तो “वह रूप रूपें | प्रतिरूप होरहा हे” एक वह ही इस सकल! विश्वको उत्पन्न करके इस की रक्षा करता है| . और वही फिर युग के अन्तकाल में कोप मे| ' भरकर प्रलय करता हुआ अपने रचेहुए विश . का संहार करता है इसी कारण उस के गुणा“ ...तीतदोने'पर-भी,सत्व*रज-लेम इन“तीनो |

३] अन्वब-पदार्थ-भावार्थ सहित (१०९) ` `

शक्तियों का काये इस में ही से निकल कर | उस ही में लीन होजाता हे सृष्टि) स्थिति और प्रलय यह तीन अवस्थाएं एक उस की ही माया- . मयी शक्ति का भीतरी भेद हे इसी कारण | पहिले मंत्र में उस माया से अछूते परम देवता-

को (मायावी-जाळवाला ) यह विशेषण दिया

गया है ओर इसी कारण तत्त्वदर्शी विद्वान्‌ एक. उसको ही जगत्कत्ता मानते हे वह रजोगुण

रूप शक्तिके बरू से विशव-की सृष्टि करक -

ब्रह्मा नाम को, सत्त्वगुणमयी शक्ति के बळ्से विश्व का विकाश और पालन करके विष्णु नाम को और तमोशुणमयी शक्ति के बल से . विश्व का विध्वंस करके रूद्र नाम को. पाते हैं, _ बह कार्य से तीन नामवाले होने पर भी, स्वरूप अदितीय और अनत. हे. वाके. सिवाय |

उपिषद

११०): चैंताश्व॑तर उँपनिषदँ। [मः

'और कोई जँगतका रचनेवाला, पाठनेवाला प्रय करनेवाला नहीं है

.:विश्वतश्वष्ुस्त विशवतोहुरः विश्वतो

अन्वय और पदार्थ-( सः ) वह ( विश्वत! / अक्षः) सब प्राणियों का दृश (उत) (विश्वतो मुखः ) सवेघुख( उत ) और ( विश्व

वाहुः ) सवत्र बाहुरूप से विराजमान: उत)

और ( विश्वतस्पा सवगामी ( एकः ) एवं (देवः ) देव ( द्यावाञ्भमी ) स्वग. बृत्युलोष।

` ' को(संजनयच्‌ ) उत्पन्न करता हुआ( बाहुभ्याग| _ शुजाओं-से(मड्मादीच-) मतुष्य. आरि को

|( पतत्तेः ) पक्षों से ( पक्ष्यादीन्‌ ) पक्षी आदि क्रो( संघमति ) संयुक्त करता है॥ ३॥ | || ( भावाथ ) उस बड़ी भारी महिमा वाले, विराट पुरुष के नेत्र सब ओर लगे इुएह अथात्‌ . सब कुछ देखता दे, सवेत ही उस के घुखहे |और सर्वत्र उसके चरण हें अर्थात वह सबका . अहण करनेवाला सब का धारण करनेवाला _ |और सर्वगामी है उस अद्वितीय परम देवता ने आकाश और पृथिवी को करके मनुष्या

| दिकों को भुजदेडो से आर पक्षी आदिको को. ।पक्ष आदि सेयु किया ; हे, वही एक मात्र | स्वग और मृत्युलोक का रचने वाला के गड सकल विश्व में उसको, जहाँ कि ऐसा.

| जिस को ले सके ऐसा जिस को देख सके ऐसा और जिस को छू सके ऐसा कुछ.

| नहीँ ३:

अन्वथ-पदार्थ-घ्ावार्थ सहित! (१११) .

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` (महर्षिः ) सवज्ञ (यः ) जो ( रुद्रः ) इंद्रदेव

' उत्पन्न करता हुआ ( सः ) वह ( नः.) हम | |

. (११३१) श्वेताश्वतर उपनिषद। [७०.'

हः, ` ; अन्वय और पदाथ--( देवनाम्‌ ) देवताओं - का (प्रभवः) उत्पत्ति का हेतु ( उद्धव) शक्ति ` काहेतु(च) और ( विश्वाधिपः ) विश्वपति

` (पूवम्‌ ) पहिले ( हिरण्यगमम ) अति निमेछ। / ज्ञानवान्‌ हिरण्यगभ पुरुष को ( जनयामास )|

है (शुभया ) मंगलकांरिणी ( बुद्धया ) बुद्धिः ते! ' (संयुनक्त) संयुक्त करे | - :( भावाथ ) जिस के अनुग्रह से इन्द्रादि कक दे 0. Mm रचित होक्‌ः 9 अपनी २. gi अभुता. को

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३] . अन्वय-पदाथे- भवथ सहित 1 (१ १३ )

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है | ८: _ मयां - - *..* हि 00 हा > i} 5० a पदाथ-( रुद्र हे रुढ! (गिरिः Nh ॥: चु डं रै | | |

- शन्त) हे.गिरीश 10.) तुम्हारी (या. )जो

(११४) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ ` [ अ०- |

(शिवा) मङ्गलमयी (अघोरा ) अभयदायिनी |

( पापकाशिनी ) स्मरण मात्र से पाप का नाश | - करनेवाली (तनूः ) शरीर ( अस्ति) है | (तया ) तिस ( शन्तमया) परम छुखमयी ( तबुवा-तन्वा ) शरीर करके, (.नः) इम को ( अभिचाकशीहि ) देखिये &

( भावार्थ ) हे रुद्र हे गिरिशन्तः हे अनन्त आनन्दमय ! तुम पवत प्र शयन करते इए विश्वभर के मङ्गल करने का | ब्रत धारण करे रहते हो, इसीकारण आप से | - हमारा निवेदन है कि-आप को जो मङ्गल- |

मयी, अविद्या और उस के कार्यों से निर्लिप्त |

अभय देनेबाली, चांदनी की समान आनन्द | देनेवाली ओर पुण्य को प्रकट करनेवाली | अर्थात्‌ स्मरणमात्र से ही पाप का नाश करने. वाली तनू ( शरीर ).है। कृपा करके एक |

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१] अन्वथ-पदार्थ-मावार्थ सहित। (११५)

वार उस अनन्त सुखमय शरीर केद्वारा हमारी ओर को निहारिये, जिस से कि- 'इमारा कल्याण हो, यही हमारी परम प्राथ i ना है ॥& 25005 0: NP

अन्वय और पदाथ-( गिरिशन्त ) हे गि रिशायिन्‌ ( गिरीश ) हे गिरिरक्षक ( अस्तः ` वे) प्रलय करने के लिये ( याश्‌ ) जिस.

. ( इषुम्‌ ) बाण को ( हस्ते ) हाथ में (बिः ' अषि ) धारण करते हो ( ताष ) उसको ` ` (शिवाम्‌) मङ्गकारी ( कुरु) कारिये ( पुरुः | ` षम्‌) पुरुषरूप से विराजित (जगत्‌ ) जगत्‌ | - कोमा, हिंसीः, मेष क्रारिये ॥.&.॥.... |

(११६) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [ अ०- `

( भावाथ ) अब प्रार्थना. की रीति कहते है कि-हे अचलशायिन्‌ ! हे. भूधरत्रात ! तुम प्रलय के लिये जिस बाण रूपिणी. महाशक्ति को धारण किये हुए हो, अपनी उस संहारिणी शक्ति को मंगलकारणी कारिये, उस अमोध . शक्ति के द्वारा एरुषरूप से विराजमान जगत का संहार कारिये, अथात्‌ जगन्मय आकृति मान्‌ ब्रह्म का दरशन कराइये विश्व में स्वत विराजमान विश्वनाथ की आङ्कतिमयी सूति। के दशन से हम को निराश कारिये, हम को साकार ब्रह्म का साक्षात्कार करनेदी जिये॥ ६॥ i ;

ततः परं बह परं दहन्तं; यथाति-. |

|: अन्वथ-पदार्थ-मावा्थ सहित (११७)

` अन्य ओर पदार्थ-( साधकाः ) साधक: (ततः ) तिस जगत्‌ से ( परम्‌ ) श्रेष्ठ (परः

ब्रह्म ) हिरण्यगभ से श्रेष्ठ ( बृहन्तम्‌ ) बृहत्‌ |

( यथानिकायस्‌ ) सब शरीरो में वतमान ( सवश्रूतेषु) सकल प्राणियों में( गूढस्‌) .

गुप्त ( विश्वस्य ) विश्व के ( एकम्‌ ) एक `|

( पारिवेषटितारम्‌ ) व्यापक ( तम्‌ ) उस (ईशम्‌) ईश को ( ज्ञात्वा ) जानकर ( अभृताः ) अमर पद्‌ को प्राप्त ( भवन्ति ) होते ह॥७॥ . (भावार्थं ) उस अशृतयोनि वेदमें प्रसिद्ध परात्पर का ध्यान करते साधक पुरुष युक्त

जगत्‌ से भी. महान, . हिरण्यगम से मी श्रेष्ठ और अतिबृहत्‌ तथा प्रतिशरीर में वतमान! विश्व के सकल पदार्थों में छुपे हुए, जगत्‌ के . एकमात्र, अद्वितीयः स्वेव्यापकः उस परात्पर * परमात्माको जानकर-अमरपदको पाते सी

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स्तात्‌ ) पर ( महान्तम ) पूण ( शत) झा ( पुरुषम्‌) पुरुष को (वेद) जानता हूँ { तग एव) उसको ही ( विदित्वा ) जानक ( चृत्युम्‌ ) मृत्यु को ( अत्येति) अतिक्रम . करता हे ( अयनाय) परमपद को पाने

a नह (विद्यते)ई॥८॥ . `, . (वाथ) तदनन्तर मन्त्रदष्टा साधक

MS 22022 ` -वहद्यमे वीक, कहाइआ/-अपत्मक्रिष

(१. » कक टॅ / x > 6 कह ७" क... हे मक, CDSN PCE DE > PITH आओ SOUR ope Ao hs SANS ०३०३७ PN, PPS

जौ 1] अन्वय-पदार्थ-भ्ावार्थ सहित (११९) हकर उसको पुर्णानन्द अद्वितीय रह्म झा ज्ञान | होजाने के कारण परमपद शाति का अधि | कारी करदेता है यथा“ इस नित्यप्रकाशस्व- क्‍ हप, विशुद्ध) ज्ञानमयः मोहरहित, पूर्ण अखण्ड | पुरुष को आनता हुँ। उस को जानलेने पर मृत्यु के माग को छांचजाता है अथोत ।उसके स्वरूप का ज्ञान होजाने पर साधक की; | अज्ञान के कारण फेलीहुई झंडी ससार की 1 > |

आसक्तिहुप कठिन से कटनेवाली फाँसी को गांठ कट जाती है, साधक मोक्षपद को पाजाता' |

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(प्रम्‌) श्रेष्ठ ( अपरम्‌ ) अश्रेष्ठ ( किञ्चित्‌ ) कुछ(न)नहीं (अस्ति) है ( यस्मात्‌ ) - ' - से ( अणीयः ) सूक्ष्म ( किञ्चित्‌ ) कुछ (

नी महिमा में ( तिष्ठति) स्थित है ( तेन ) उस ' (पुरुषेण) पुरुष करके ( इदम्‌ ) यह ( सर्वम्‌ सब (पणम्‌ ) निरन्तर व्याप्त हे |

. अब उस मृत्युमाग के पार होने का हेतु - है किवह.केसा हे|जिस से रेष्ठ, वा,अशेष

(१२०) _ श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ क, -चित्‌। दक्ष इव स्तब्धो दिवि।

-त्येकः तेनेदं पणं पुरुषेण सबस्‌ ॥९॥ अन्वय और पदाथ-( यस्मात्‌): जित से

नहीं ( ज्यायः ) बडा ( ) नहीं ( अस्ति ) है

` (एकः ) एक ( वृक्ष-इव ) वृक्ष की समान

( स्तब्धः ) निश्चल (दिवि) प्रकाशरूप अपः

( भावार्थ ) पूर्वं मन्त्र में कहा हे कि उस को जानलेने से मृत्युलोक के पार होजाता है

३] अन्वथ-पदार्थआवार्थं साहित (१३१) |

नहींहे अर्थात उत्कष ओर अपकर्ष यह दोनों जि- स्‌ अचिन्त्यशक्ति परमणुरुष में विरोध को छोड़ कर रहते हैं, जो छोटे से भी छोटा और बड़े से |

- भी बड़ा है अर्थात्‌ छोटापन और बड़ापन ` जिस महामहिमाशाली पुरुष में एकसाथ रहते : हैं। जो अद्वितीय परमपुरुष वृक्ष की समान . निश्चळ होकर अपनी प्रकाशस्वरूप महिमा में . ` सवेदा विराजमान रहता दै, जिस की विश्‍वप्र- काशिका शक्तिरूंप दपण में यह सकल भुवन | . सदा प्रतिबिम्बित रहते हैं, उस प्रमशक्तिशाली प्रमएुरुष से यह सब दृश्य और अदृश्य चरा' | चर समस्त जगत्‌ निरन्तर परिव्याप्त हे, इस ` कारण एक उस को जानलेने से ही विश्व के 5 सक्छ पदार्थों का ज्ञान दोजाता है, सब जान" -नेयोग्य एक उस के ज्ञान में ही समाया. - हुआ हे.॥७॥. a 01 वि कि, दि |

.. जिसमें कार्यकारणपना रूप जगत्‌ के घी

(१२२) शेताश्तर उपनिषद) [अप हि

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: ` `( इतरे) दूसरे ( दुःखम्‌ ) दुःखको ( एव ) . ( अपियंति-आश्चुषन्ति ) प्रात्त होते हैं १० ॥३ (सावाथ)-जो जगत से अतीत है अथाव

' का लेश भी नहीं है. उस परात्पर प्रस पुरा| 0 f यी को पर gr i: नही. तथा. ध्याति 1}

हरे | | (३. ` अन्‍्वय-पदार्थ-जाबाय सहित! (१९३) `

आपिदे विक, और आधिथौतिक इन तीनों पापों से झुकत है इसी कारण इस में तीनों तापो की यातना नहीं होसकती दै, वह सब कार की यातनाओं के मागे से अगले माग रहता है, जो सकळ प्रारब्धी महात्मा उस जानलेते हैं, उन को फिर संसार की जंजीरों मं नहीं बेचना पड़ता है, वह समाधि के प्रभाव हि शीघ्र ही, उस निर्विकल्प निरञ्जन का सांशु- त्य पाकर अमर होजाते हैं और जो इस अबु ज्ञान के अधिकारी नहीं हो सकते हें या की चेष्टा नहीं करते हैं, वह ही संसार की असंद्य दुःसाग्नि में और कठिन से. तरने योग्य धाया सझुह्द में निरन्तर डूबे रहकर बडे २? .. हो को ही भोगते रहते हैं १० को

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(१२४) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [ अ.

अन्वय ओर पदाथ सः ) वह (

_ मैं स्थित (शिवः) मङ्गलरूप है ११ नं दीखनेवाले सब ही पदार्थ उस परम वृहसव के भीतर अपनी महती शक्ति

.. वतमान हे वह सवेव्यापी और सकल ऐशवय मे, युक्त, है, वह, सवेदा. सब, पदाथा मे ङ्गम

वाच ) सर्वेश्वयेशाली ( सवोननशिरोग्रीवः | प्राणियों के हदय के भीतर वत्तमान ( असित | हे ( तस्मात्‌ ) तिस कारणसे ( सवगतः )

( भावाथ )-इस विश्व में दीखनेवाले, ओ। वाच्‌ धु के मुख मस्तक ओर ग्रीवारूप है

अन्वय-पदार्थ-भावार्थ सहित 1 ( १२९)

कप से विराजमान रहता है, सार यह है कि | वह सब का आत्मा है और इस के आधार से ही सब पदाथ अपने स्वरूप में रह

| अन्वय और पदाथ-( वे ) निश्चय ( एषः ) ` यह ( पुरुषः ) परमात्मा ( महान्‌ ) सब से | | बडा, अद्वितीय ( प्रश्ुः ) समर्थ (सत्त्वस्य )

| अन्तःकरण का ( प्रवत्तेकः ) प्रेरक ( सुनि | लाम्‌ ) स्वरूपावस्थारूप ( प्राप्तिम्‌ ) परमपद की प्राप्ति का ( ईशानः) नियन्ता ( ज्योतिः) ` विशुद्ध-विज्ञान-प्रकाश ( अव्ययः) अविनाशी ` (अस्ति) है १२ |

C-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection: Digitized by eGangot

| | (१२६) श्रेताश्वतर उपनिषद्‌ [अ= ;

( भावाथ )-वह अइुपम शक्तिवाला, सृष्टि स्थिति प्रलय करने में समथ परमपुरुष | परमात्मा ही सकल प्राणियों के अन्तःकरण | का प्रवत्तंक और अपने स्वरूप में रहनेवाली |

` घुनरावृत्ति से रहित परमपद; की प्राति का | देनेगला है, वही विशुद्ध विज्ञान प्रकाश | और अविनाशी है, उसका मनन आदि करने |

से साधक उस के पद की प्राप्ति का अधिकारी होकर जन्म मरण की शुखला

(जंजीर) को तोड सकता है १९॥ .

वह भवन्ति १३॥ | “अजगर ओर पदाधः५ अन्तगत्मा )-अन्त ) |

0 ३] अन्यय-पदांथ-भावाथ संहिंत। (१३७) | | यामी ( पुरुषः ) पुरुष ( अंगुष्ठमात्रः ) अंजू

|` के परिमाण का (सदा) सब काळ में (जना- || नाम्‌ ) प्राणियोंके ( हदये ) हृद्य में सन्निविष्ट | स्थित ( झन्वीशः-ज्ञानेशः ) ज्ञान का स्वामी हे (मनसा ) मनोमय नेत्र के द्वारा ( अभि" ` कुप्तः ) प्रकाशित होता है ( ये) जो ( एतत्त) | इसको ( विदुः ) जान लेते है ते) वह - | (अभृताः) अमर ( भबति ) होते १३॥ |

` (भावाथ) प्रकट होने के स्थानके अइुसार - | अंगुडमान के पारिमाण से हदय के भी भीतर . ` शयन्‌ करनेवाला अन्तयोमी परजपुरुष सब सम" | सब के हदयों में स्थित रहता दैव अखण्ड.

ज्ञानमय है, मनोरूप नेत्रं के क्षरा उस का

| “दर्शन होसकता है अथात्‌ मनन आदि रूप . | सम्युक दर्शन के दारा वह साधक के नेजों में

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(१२८) श्वेताश्वतर उपनिषद | [अप

जाते हें वह शीघ्र ही अमर हो जातेहै॥ १३॥

है / ` अन्वय और पदार्थ सः) वह ( ` - शीषा) अनन्त मस्तकवाला ( सहसाक्षः

रणवाला (पुरुषः) पूण परमात्मा ( भूमिम्‌ _ भूमिको ( विश्वतः) सब ओर ( वृत्वा ) गा . पकर ( दृशाँगुळम्‌ ,) अनन्त अपार मिले, कपर,दश अगल केन हसरी

प्रतिबिम्बित होता है अथवा थइ मन के द्वारा प्रकाशित मनोराज्य का स्वामी है, उस को मनकी स्थिरता आदि. के द्वारा पाथा जा सकता दै, जो चतुर विवेकी इस को जान

|

|

|

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४] . अन्वय-पदार्थ-भावार्थ सहित। (१ २९, )-

( (अति अतिषठत्‌ ) अतिक्रमण करके स्थित 1 हुआ १४

|| (भावार्थ ) वह अनन्त मस्तक, अनन्त नयन ओर अनन्त चरण वाला पूण परमात्मा | प्रथिवी के भीतर और बाहर व्याप्त होकर

अनन्त अपार भुवन में सवत्र स्थित है, अथवा नाभिदेश के उपर दश अंगुल के हृदय में. विराजमान है, इस प्रयिवी पर सब ही उस से व्याप्त हैं और सवेत्र उस ही का फेलावहो | | रहा है॥ १४ |

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|. अन्वय और पदाथ-(: यत्‌) जो (वतम्‌) |

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(१३०) शखैताश्वेतर उपनिषेद [थ बीतगया (च) और ( यत्‌ ) जो (भाव्यभू विष्यत्‌ ) होगा ( इदम्‌ ) यह (सवम्‌) सो (पुरुषः) परमात्मा ( एंव ) ही है, असतत! स्य ) कैवल्यपद का (उत ) और (यंत) (अन्नेन ) अन्न के द्वारा (अतिरोहति )' पा।

` पुष्टहीता हे (तस्य ) तिस का (ईशान हे ) स्वामी है १५९ 0

(-भावाथ ) भूत भविष्यत्‌ वतमान

कुछ वह परमात्मा ही हे, इस सब कार के सिवाय और कोई कर्ता नहीं है, एक ... ही अमर पदका विधाता है इस. विश्व पं ` जो कुछ अन्न से पारपुष्ठ होता है. उत | . नियन्ता भी एक वह परम पुरुषःही हे अध हस जगत्‌ में उसके. सिवाय और कुछ 1 हा ०८है ॥७ Varanasi Colecton, Digifzed 0/9091860 "|

/) ||) ] | अन्वय्-पदाथ-मादाथ सहित (१३१)

| सवतः पाणिपाद तत्सवतोऽक्षिशिरोः | सुखस संवतः श्रृतिमछोके सवमा. | : त्त वि 86180 1६ शै, | | | अन्वय और पदाथ-( यत्‌ )जो ( सवतः | सब ओर ( पाणिपाइन्‌ ) हाथ पेखाला है. | (सतः ) सब ओर ( अक्षिशिरोपुखम्‌ ) नेत्र. शिर और सुखवाळा हे ( स्वतः) सब ओर . ( श्रुतिमत्‌) श्रषण शक्तिवाला हे ( तत्‌) वह { ( लोके) लोक में ( सवम ) सबको ( आवृत्य) . व्यापकर (तिष्ठति ) स्थित है॥ १६॥ ( भावार्थ ) फिर निविशेषभाव से उसकी

व्यापकता दिखाते है कि-उस के हाथ ओर | पेर सर्वत्र ही विराजमान हैं, उम के नेन्न, शिर : | और मुख सर्वत्र ही विद्यमान हे और उस की भ्रपणुशक्ति भी सुवेत्र , ही वैतस. हती हे, |

( १३२) श्वेताइबतर उपनिषद! [अ०./

वह सकल ब्रह्माण्ड में व्यापकर सकल प्राणियो। में विराजमान रहता हे.॥ ३६ .॥ |

` अन्वय और पदाथ-( ब्रह्मतत्त्वज्ञाः ) ब्रह्म के है _ तत्व को जाननेवाले ( सर्वेन्द्रियगुणामासम || सकल इन्द्रियों की शक्ति के प्रकाशक (सर्वन्ि। यविव्ञितम्‌ ) सकल इन्द्रियों से रहित (सव! स्य ) सब के प्रस्‌ ) प्रभु इंशानम्‌ ) ति यन्ता (सवस्य ) सब के ( बृहत्‌ ) बंडे (शर | णम्‌ ) आश्रय को ( वदंति ) कहते हैं॥ १७॥ ( भावार्थ ) ब्रह्म के तत्व को जाननेवा? पण्डित 4 हैं कि-वह आप समस्त इंद्रिय “से रहित'झेकर 'मी-सकरू-संसार-की--शक्तिय

[ a हि

बा हे

१] अन्वय-पढार्थ-भावाथे सहित। ( १३३)

का प्रकाशक ओर सबका प्रथु दे, तथा सकल . संसार का नियामक एकमात्र वह ही है, वह बड़ों से भी बड़ा है ओर वह ही इस जगत्‌ का | एकमात्र रा है जे पपी ला संवस्य-लोकक्ष्य स्था

| | | |

jy बह्‌ (९ ब्‌ २. fi '- रथ चरख्य ॥१८॥ | अन्वयं और पदाथ-( स्थावरस्य ) स्थावर का (चरस्य ) जंगम का (च ) भी ( सवस्य) सकल ('लोकस्य ) लोक का (वशी ) निया मक ( हमः ) सकल अज्ञान का नाशक ( नव- द्वारे) नोद्वार वाले (पुरे) देह में ( देही दिह्यते क्विश्यते शोकमोहादिभिः इति देहः, तद्विशिष्ट i ) शोक मोद्दादि क्लेशों के पात्र देह का | धारण करनेवाला होकर ( बहिः ) बाहर ( लेला | ES )गमनागग्रत करता है. १0...

श्र 36४8 1 RE Fd जप री HY Ser ki ei VR डा

( | १४४) . श्वेताश्वतर उपनिषद [ अफ £ (भावार्थे ) एक वही स्थावर और जंगम |

सकल लोकों का नियामक है, वह ही अविद्या: - .. रूप अन्धकार का नाश करनेवाला परमात्मा | इस नौ द्वार ( दो नासिका के, दो कानों कें, हो नेत्रों के; सुख, गुदा, और सूचरद्धार इसपकार | नौ द्वार) वाले नाशवान्‌ शरीर में शोक मोह | आदि छेशों के पाघरूप से विराजमान होकर | बाहर के विषयों को भोगता है, परन्तु है वास्लव में वह पाप के लेप से रहित सनातन| 6 पुरुषदे॥१८॥ 0. 5 ....

| १) अन्धय-पढाथे-लावार्थ संहित (१३५)

| ` अन्वय और प्रदाथ-(सः ) बह ( अपाः: णिपाइः ) हाथ पेर रहित ( सन्नपि ) होकर

शं

भर मै“

भी (जवनः ) वेगशाका ( अहीता ) अहण -

करनेवाला ( अस्ति ) हे (सः) बह (अचश्च | सन्‌ ) चक्षुरहित होकर (पश्यति ) देखता

है ( अकणः सन्‌ ) कान रहित होकर. (शुणा-

ति) सुनता है (सः) वह वेद्यम्‌) जानते. . | योग्य को (वेत्ति) जानता है (तस्य) इस . का (वित्ता ) जाननेवाल। (न) नहीं (अस्ति) . | हे( तम्‌ ) उसको ( अग्रम्‌ ) प्रथम ( महाः ` | न्तम्‌) पूजनीय ( पुरुषम्‌) पुरुष '( आहुः) ` | कहते हे॥१९॥ .

( भावार्थ ) वह परस पुरुष हाथ पैर आदि.

सेरहित होकर भी अलंब्य वेगवाला ओर सकळ पदार्थों को महण करने में समर्थ है, वह . बाहरी | तज्ञ आँख पृष्ट्रित भी अपी, सन्नी

(१३६) श्वैताश्व॑तर उपनिषद्‌ ! f | प्रज्ञा के बल से सब को ही देखता है, उसी साधारण लौकिक कान होने पर भी - अपनी ऐश्वयेशक्ति से सब कुछ सुनता है, वा जाननेयोग्य सब ही बातों को विशेषरूपे . जानता है, तत्त्वज्ञानी परन्तु उस को जानो वाला कोई नहीं दै, क्योंकि वह ज्ञान से

व्‌ महतो महीयानात्मा

हि वीतशोको धाः प्रसा! दान्म २०॥ | . अन्वय और पदाथे-( अणोः ) सूक्ष्म ` ` (अणीयान्‌ ) सूक्ष्म ( महतः ) महान्‌ | __=( महीयान्‌) चडा ( आत्मा )आस्मा-“अ्स

3९] सम्ब पदार्थ भावार्थ सहित ( १३७) . -

| इस्त ( जन्तोः) प्राणी के ( गुहायाम्‌ ) हदय में ` (निहितः ) स्थित है ( वीतशोकः ) शोकरहित ` विवेकी ( चातुः) विधाता की ( प्रसादात्‌) ` | प्रसन्नता से (तम्‌ ) उस ( अक्रतुम्‌) अकाम .

( इश्‌ ) ईश्वर को ( महिमानस्‌ ) उस को महिमा को ( पश्यति )३खता है॥ २० |

( भावार्थ ) वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म ओर

बडे से भी बडा आत्मा इस विश्व के सकल | प्राणियों के हृदय में स्थित है, सकल जीवों के | | हृदय उस की क्रीडा का स्थान है शोक मोह आदि तामस भावों से रहित साधना करते वाला विवेकी पुरुष ध्यान धारणा आदि के. बल से इश्वर को कृपा का पात्र होकर अपने : | हृदय में ही उस वासनाहीन हृदयेख्वर को ओर | उस की अनुपम महिमाओं को देखकर कृतः | कृत्य होजाता हे, यदि देखना आता होतो.

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(२३८) ... खेताःवतर उपनिबछ्‌ [० |

' आत्मतीथ में ही उस सकल तीर्थो के स्वामी | . की नयनानन्ददायिनी सूति का दशन होजाता | . है | हम को देखनेकी शक्ति नहीं है इस कारणही | ` हम दर्शन के अभिलाषी होकर जहां तहा इमते|

हुए वृथा परिश्रम करते हँ, परन्तु अधिडारी |

| F विना हुए आत्मतीथ की पेवा करने को इच्छा

` `न करके बाहरी तीर्थो की सेवा करना ही।

. उचित है॥ २०

` अन्वय और पदाथे-( अहम ) में ( एतम्‌ | |

_ इस (अजरम्‌) जरा रहित ( पुराणम्‌ ) पुरातन

सवात

dy 10650: 00 UKs [नम्‌ Bhawan’ Vara स्वो Collection. Digitized सवृ 009 तुम्‌ |

| ] अन्वथ-पदार्थ-भाषाथ सहित ( १३९ )

| सर्वव्यापी को (विधुत्वात्‌) व्यापक होने

4.

1

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( वेद) जानता हूँ (ब्रह्मवादिनः )

| ब्रह्मवादी (यस्य) जिस ईश्वर के ( जन्म-

निरोधम्‌ ) जन्म के रोक़नेवाले ( ज्ञानम्‌.)

ज्ञान को ( अभिवदन्ति ) प्रणाम करते हैं

( आवाथ) में इस जरा-मरणरहित,सवात्म+ पुरातन, सवेगत ईश्वर को प्रकाश की समान:

[ सर्व व्यापीरूप से जानता हूँ ब्रह्मज्ञानी पण्डित. | उसके जिस ज्ञान को ही एक मात्र बार के. | जन्ममरण का नाशक कहते हैं और जिस | पुरुष को वह नित्य निरंजन कहकर प्रणाम. | करते हैं; में उस परम दुलभ ज्ञान और परम

दिनता से जानने योग्य उस को जानता हूँ,

| साधक का ऐसा इट विश्वास यदि पाखण्डीपन | की मलिन छाया घे दृषित हों तो इस से ही

वह मुक्त होजाते हैं॥ २१॥ सरा अध्याय समाध

./ १६८: .२ ecti जवा ed by eGangotri .

अन्त्य और पदाथ--( एकः) एक ( वणेएहित ( निहितार्थः ) स्वाथ रहित ( यः)|

)

जो ( बह्ुध। ) अनेक प्रकार की (शक्तियोगात्‌) शक्तियों के कारण (अनेकान ) अनेकों ( वर्णो'| न्‌ ) रूप रसादि विषयों को ( दधाति ) रचता हे(आदो.) प्रथम (विश्वम्‌ (विश्वको ( एति) प्राप्त होता दे (च) ओर (अंते) अन्त मे| ( वि-एति ) विलीन होता है ( सः) वह ( देव| देव (नः ) हम को ( शुभया ) परम हितका

(बुद्धबा.) बद्धि से संय.) संयुक्त करे॥1॥)

=

४] अन्वय-पदार्थःभावार्थ सहित! (१४१) |

| ( भावाथ) जो अद्वितीय, निराकार और किसी प्रकार की इच्छा नहीं रखने वाला है, जो सवथा आपतक्ति रहित होकर अपनी अनन्त महिमा के बळ से अनन्तों रूप-रस आदि विषयों को रचता हे आदिशाळ में जिप

1

' अनादि पुरुष से यह सब ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता दै

में जिस की अनन्त सत्ता में विलीन

| होजाता है वह सृष्टि-स्थिति प्रलय का करने

वाळा परम पुरुष परमात्मा हम को आत्म- ' हितङ्गारी बुद्धि देकर भीतर बाहर मंगल का

प्रकाश करे, उन के चिरमङ्गलमय ज्योतिजीळ

| से हम ज्योतिष्मान्‌ हों १॥ ..

'विश्रतियों के प्रकाश का भेदमात्र है, उस | स्वयं रूप से अतीत होने पर भी उस कासा!

( १४२) चैतोश्वेतर उपनिषद्‌

हुये है (तत्‌) वह ( वाथुः) वागु हे ( वत उ-एव) ही (चन्द्रमाः ) चन्द्रमा है ( तत्‌ खव

वृह (प्रजापति: प्रजापति है २॥ |

भावांथ )-वंह ही परम पावन वेश नर है, वंह ही स्वप्रकाश स्वप आदित्य है। और वह ही सुन्दर कांतिवाला चन्द्रमा दै तेजोमय सकल तारांगण वा विश्व कॉ जीवन जल भी वह ही उसको

है, बह ही नूह रे ओर. वह ही प्रजापूति कै,

४] अन्वयःपदार्थेःभःवाथे-सहित। (१४३५) | इस के अभिप्राय को लेकर ही. भगवान्‌ ने

| गीताः में:' आदित्यानावहः विष्णुः ' इत्यादि | विश्वतिः अध्याय कोः कहा हे॥२॥.

बय और पदाथ-( तम), तू (स्रीः). | जगत्‌ की. उत्पत्ति का मूलकारण (त्व्‌) तू. | ( पुमान्‌.) जगत्‌ का प्रकाशक (त्वश्‌ ) तू . | ( कुमारः ) कुमार (उत--वा ) और ( कुमारी ) . | कुमारीः (असिः) है (त्म्‌ ) तू ( जीणः ) वृद्ध | (दण्डेन) दण्ड के द्वारा ( वेचसि ) विचरता . है (त्वम ) तू. ( विश्‍वतोसुखः ) सर्वव्यापी

| उत्पन्न ( भवसिः ) होता हे

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# 1 | नत = अक 2३३७ | ह्या फरक जे TF 5 hh >

( १४४) श्वेताश्वतर उपनिषद [ अ०-

( भावाथ )-हे भगवन्‌ ! तुम ही त्री औ| . तुम ही पुरुष हो, अथात्‌ जिस में संयत हो गभ कड़ा होता हे और उत्पन्न होता है ऐसी जगत के उत्पन्न होने की मूलकारण स्री ४" पवित्र ता करने | तुम ही हो, तुम ही कुमार और तुम ही कुमा हो, तुम ही जराजीण हो दण्डघारण किये हुए | ) ` वृद्धरुप से विचरते हो, तुम ही सवेतीमु ' अथात्‌ सर्वेव्यापी रूपसे नए भाव में परम / नवीन होकर बालक रूपसे जन्म ग्रहण करते ˆ ` इस भूमण्डछ पर तुम्हारे सिवाय ओर कुछ नह| ३, तुम ही अपनी स्वाधीन महिमा के बलए। `. उत्पन्न होतेहे और तुम ही उत्पन्न करते हो युहस्री है, यह पुरुष है, यह युवा है, i युवती है, यह बूढ़ा है, यह बालक हे, इत्या . जो भेदज्ञान हे.सो अज्ञात के परदे से दिके

) ५] अन्वय-पढाथ-भावार्थ सहित। (१४५)

लोगों के नेत्रों की मिथ्यादृष्टि का फलमात्र “है, वास्तवमें तुम एक हो, अद्वितीय ही हो, सब कुछ तुम ही हो, आदि मध्य और अन्त

तुम ही हो जन्म) वृद्धि और विनाश यह

तीनों अवस्था तुम्हारी ही विभूति का भेद है, | तुम अनन्त हो और तुम ही सवेव्यापी सर्वज्ञ हो ३॥

0104 Rd bs i शव रन BS, Sr

| ५10 और पदार्थ-( नीलः ) नील | | (पतङ्गः ) पतंग ( हरितः ) इरा ( तडिदगर्भः ) | जिस के भीतर बिजली रहतीहे ऐसा मेघ.

हे ९: . मुद्रा ) समुद्र त्व ) ^ नुइतव्‌;,),छ;,कतृए (सह्ता (त्व). | (७-७. १॥०1१10६510 Bha asi Collettion, Digitized by eGangotr. ..

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(१४६) _ श्वेत्ता्वतर उपानिषदू:। [ अ. |

तू" असि ) हे ( अनादिमित्‌ः ). आदिरहित

( विभुत्वेन )'व्यापक रूप से ( वत्तते. ) वत्तता |

है ( यतः) जिस में ( विश्वाः-विश्वानि ) सकल | ' ( भुवनानि' ) भुवनः ( जातानि ) उत्पन्न। ` हुष्हे॥४॥ ` | ' (भआवाथ)-नयनानन्दकर नीले पतंगा, मनको मोहनेवाले हरे तोते आदिः पक्षी| ` बिजलीःको चमकरूप नेत्रवाली रमणीय मेघः | ही “माला, नवीन जीवन को. देनेवाली बु [ ` वसन्त आदि ऋतएं' ओर अनन्त अगाध | समुद्र यह सब दुम ही हो; तुम्हारे ही प्रकारा का भेद है, तुम्हारी आदि'नहीं है और इन।

` आफ विराजमान है अर्थात्‌ तुम स्वयं अनादि .. होकर भी जगत की आदि रूप से विराजते हो,

| | ४] अल्दय पदा्थे-भावाथे सहित (१४७).

| कारण की अवस्था हुई है, अंनादिकारण तुम | अनादिमान्‌ मुवनों के कत्ता दो, तुम सर्वव्यापक रूपे से सदा सवत्र व्तेमांत रहते हो, क्योंकि- | यह सकक भुवन तुन से ही उत्पन्न होते हें, | और तुम्हारा व्यक्त होना ही इस विश्व के प्रकट | | होने का आदि कारण है॥ . ह.

| विशेषा्थ-चंचल मनोहर पतंगे ( इंडने वाले | कीडे ) कानों को आनन्द देनेवाले छुकण्ठ झुक ` सारिका आदि पक्षी तुम्हास ही अंश हैं, तुम्हारी | दयाफे झरने के परम शीतल हैं, | सघन श्याम मेवमाळा की गोद में हास्यमय | सौदामिनी का नाच आप की ही विभूति ऱ्य दे | पृथ्वी के रत्न जड़े गहनों की समान पुष्प ओर. परम गन्ध से महंकनेवाली वसन्त आदि. | कतुएँ तुम्हारी दी महिमा की छाया है, सुचोल | विशाळ अनन्त सध म्हार, ही सका.

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(१४८) शेताश्वतर उपानेषढ [अ८

' दुसरा रुपहै, इस जगत में जो कुछ सुन्दर जो कुछ प्रीतिमय है, जो कुछ प्रेमका आधारे! __ वृइ सब तुम्हारा ही अंश है, तुम स्वयं नित्य सुन्दर, शान्त निमेल हो इस कारण तुम्हा अंश से उत्पन्न हुए पदार्थ भी तेसे ही हैं हे नाथ! तुम ने खयं ही कह। है--“यद्यदविभूतिमत्सत्त। श्रीमदुजितमेव वा तत्तदेवावगच्छ त्त्वं _“ शृसम्भवम्‌” (इस घराधाम में जो . मान्‌ है, जो कुछ विभ्रूतिमात्‌ दै, या जो है . कुछ प्रतिभा वाला है वह मेरे ही अलध्य ते अंश से उत्पन्न हुवा है) हम दृष्टि हीन हैं, : कहीन हैं, इस कारण ही सकल भूतो में विर . जमान आपकी विराट्‌ सत्ता का दशन वा उत ___ को मन में धारण नहीं कर सकते हें तुम हमा नयन में नयन को रखकर क्रीडा करते शी ` परन्तु हम देख नहीं पाते हे जिस

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|. ५] अन्वय-पदार्थ-भावार्थ सहित। (१४९)

अन्धकारमय भाता के गभ में अजान हुवा सो रहा था उस समयतुम ने ही मातारूप से अपने परम कोमल स्नेह से सिंचित अंचल में मुझ को स्थान दिया था, तब से अब तक तुम || ही रक्षा करते चले आरे हो और हे निरंजन ! तुम ही शुकू-पिक-पतङ्गादि चन्द्र-तारे-चा- दनी आदि तथा बिजली मेघमाला: और शरद्‌ वसन्त आदिके द्वारा हमारे हृद्यका रंजन ' करते हो ४॥ | “अजामेका लोहितशुळळष्णां बही | प्रजाः छुजसानां सरूपा ।' अजो | ` यको, जष्माणोऽवशते जहात्येना ` ` शुक्तमोगामजोऽन्यः ५॥ | अन्वय और पदाथ-( हि) निश्चय करकं . | . एकः ) एक्‌ ( अजः ) शाश्वत पुरुष ( लोहि

. (१५०) . शरेताश्वतर उपनिषद [भ

- तनशुक्ककृष्णाम्‌ ) तेज जळ अन्नरूपिणी वा सत रजः-तमः-रूपिणी ( बह्वीः) बहुत सी ( प्रजाः)

प्रजाओ को( सजमानाम्‌ ) रचती हु ' सहूपाम्‌ ) विकाररहित { एकाम्‌) एक (अजाम्‌) प्रकृति को ( जुषमाणः ) से ' करताइवा ( अनुशेते ) भजता हे ( अन्यः)

दूसरा (अजः) साक्षीएुर्ष( भुक्तभोगाग| विषय भोगसे चरितार्थ हुई ( एनास्‌) इसको ( जहाति ) त्यागता है : (गी

( भावाथ ) अनादि आत्मा, अभि, जर है और अन्नरूपिणी अथवा सच्च-रज और तमो! ` गुणवाली, अनन्त प्रजा को उत्पन्न करनेवाली __ विकार शून्य) एक अनादि प्रकृति को '' - सेवन करता हेओर भोगकी छालसारहिं।

दूसरा साक्षी पुरुष (आत्मा) इस विष ` भोग में चारिताय मकृति को... त्यागुता ला

| | " CC-0. Mumlikshu Bhaw i > हु

५३]... अन्वय-पदार्व-्भावार्थःसहित। (१५१)

| अथौत्‌ प्रकृति के स्वाभाविकः इच्छितः भोग

| केः अन्त में तत्वज्ञान कीः प्राप्ति, होजाने पर || वह जड़ी हुई विषयों की आसक्ति दूर

होजाती है | | | ( विशेष व्याख्या)प्रकतिओर पुरुष ( आत्मा ) | यह दोनों ही अनादि हे शरीर ओर इन्द्रि | यादि विक्रार तथा सत्व,रजःतस यह सध प्रकृति | से ही. उत्पन्न हुए हें कार्य कारण. और उनके: 'कत्तांपने का हेतु भी प्रकृति ही है) पुरुषमात्र | सुख दुःख भोगने का हेतु हे, क्योंकि पुरुष प्रकृतिगत होकर प्रकृति से उत्पन्न इए सब गुणों ._ को भोगता हे, जब आत्मप्रकृति में स्थित होकर गुणों से युक्त होता है उस समय. मन | उपाधि को स्वीकार करके; पुख दुःख आदि | | और जीवरूप से अनेकों प्रकार. | की ऊँची नीची योनियों में प्रकट होता है।

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(१५२) श्रेताश्वतर उपनिषद्‌ | [ अ०- |

आत्मा अथोत पुरुष ही मन ' रूप से सकर योग्य विषयों को भोगता हे फिर जब क्रम से भोग की लालसा क्षीण होकर ' मन ' उस ` उपाधि से दूर होजाता है तब फिर भोग आरि का अनुभव कुछ नहीं होता हे। भोगी आत्मा और भोगंशून्य आत्मा यह लोकिक नाम दूर होकर दोनों एक होजाते हे यही बात गीताके| १३ अध्याय में १९ श्लोक से २२ श्लोक ' तक कही है॥. «५ 15० दा झुपर्णा सयुजा सखाया, समान क्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः | स्वादत्यनज्ननन्यो'मिचाकशीति&॥ अन्वय और पदार्थ-द्वा द्रौ)दो(सयुजा सयुजी॥ एक साथ विहार करनेवाले (सखाया सखायी। सुखा मववाले,&पुपणी.सुपर्णी.), पक्षी समा

| ४) .. अन्वय-पदार्थ-भावार्थ सहित। (१५३) |

नस्‌ ) एक ( वृक्ष ) शरीररूप वृक्ष को ( पारे बस्वज्ञाते) आश्रय बनाकर रहते हैं ( तयोः ) | उन में (अन्यः ) एक ( स्वादुः ) मीठे ( पि- प्प्ल्म्‌) फूलको (अत्ति ) खाता है (अन्यः) दूसरा ( अनश्नन्‌) भोग करके ( अभिचा- कशीति पश्यति) देखता है ६॥ F. ( भावार्थ ) परस्पर मित्रतावाे, निरन्तर | एक साथ विहार करनेवाले जीव और ईश्वर रूप दो पक्षी देह रूप वृक्ष पर एकत्र बैठे हँ,उन दोनों में जीव रूप पक्षी मीठे फल-अथोत्‌ हिले मीठे माळूम होनेवाले विषयरूप फल. | को भक्षण करता है।ओर ३शवररूपी दूसरा पक्षी | फल को भक्षण करके साक्षी की समान इस | जीवनामक पक्षीके अक्षणके व्यापार क्रिया | आदिको देखता है जीवरूप 5 पक्षी अनुरक्त,

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परमात्मा भोग आदि से रहित रहता दे साधा

-गीता में कहते हैं-

१५४) वेतोश्वतर उपीनिषद्‌। [भः पक्षी आसंक्तिएहित, निर्लेष और भोगकी ला. रसासे रहित है जीव अर्थाव जीवात्मा औ।

परमात्मा दोनों ही देह में विराजमान रहते || इन में जीवात्मा भोग में तत्पर रहता है

रण रूप से सन में यह तकना उठसकती है कि-दुःखादि शमय देइ में रहकर भी पर

त्मा निर्लिप्त वा दुःखमय आदि .के अनुभत्रस। _ रहित हो यह केसे होपक्रता दै! इस में

) / तो आधार आधेयता होते से एकका गुण दूस में जाना चाहिये ! परन्तु वास्तव में ऐसा नह|

हे, यहां हम भगवानके वाक्यका स्मरण करो से ही वास्तविक तत्त्व पा सकते हैं, भगवा

अनादित्वात्निगुणत्वात्परमात्मायपव्यं

| अन्वय और पदाथ-( पुरुषः) जीव ( समा- | ने) एक (वृक्षे ) वृक्ष पर ( निप्रग्र; ) आसक्त | हुवा ( अनीशया) शक्ति हीनता करके(बुद्म-. | मानः) मोहित होता हु (शोचति) शोक |

१५६) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [ | को (अस्य) इसके( इति ) इस (महिमानम्‌) महिमा को ( पश्यति ) देखता है ( वीतशोक) शोकरहित ( भवति ) होता है ७॥

(भावार्थ ) पुरुष अर्थात्‌ देह के भीतर रहे वाला जीव, देहरूप वृक्षको ही अपना प्रधा] अबलम्बन मानकर अपनी अज्ञानता

शक्तिहीनता के कारण मूढ हुआ निर शोक करता हे और जब तच्वज्ञानियों ! सेवित परमात्मा की ओर और उस की व्यापी अखण्ड महिमा की ओर कोह! डालता है तब उसकी भ्रांति दूर होजातीदे॥५|

१] अन्बय-पदार्थ-भावार्थं सहित (१५७).

अन्वय और पदाथे-( अक्षरे) अविनाशी |] | ( परते ) परमोत्तम ( व्योमन्‌, व्योम्नि) | आकाशपदवाच्य परमात्मा में ( विश्वे) सकल : (देवाः) देवता (ऋचः ) ऋचाएँ ( अधिनि

षेदुः) आश्रय करके रहीं ( यः) ( तम्‌)

उसको (न) नहीं ( वेद ) जानता हे ( ऋचा ) ऋचा से ( किम्‌ ) क्या ( करिष्यति) करेगा (ये) जो ( इति ) इप्त प्रकार ( तत्‌ ) उसको ( बिदुः) जानते हें (ते) वह (इमे ) यह ( समासते ) आनन्दात्मस्वरूप सवे व्यापी | होजाते हें॥ | |. (भावार्थ ) ऋग्वेद आदि सब वेद, उस | डी विनाशी, व्यापक, परमोत्तम, .अनवच्छिन्न | आश्रय करके

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।' परब्रह्म काही प्रतिपादन है, जिस परमात्मा मे सब देवता समष्टि और व्यष्टिभाव से आश्रय | .. करके रहते हैं, वेद जिस की दिव्य ज्योति)

` प्रकाशित होने का स्थळ हैं, उस सब वेदों बे द्वारा जानने योग्य परात्पर परमात्मा कोते ' जानकर उस के स्वरूप को जानने से उदासीन ) ' होकर जो पुरुष अप्रविष्ठमाव से और : दृशा में केवळ कमे लिप्सा के वश में होक ५») वैद आदि का उच्चारण करते हे उन सपेरों

3! चादि वेदों के पढ़ने का कुछ फल नहीं होता. है, उनका वेदपाठ व्यर्थ है और जो वेद विपि के अनुसार परमात्मा को मनोराज्य के सिह सन प्र बेठाकर उसका ध्यान करते हे, वह

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१. : ] अन्वर्य-पर्दांय-भावाये संहित ( १५९ १.

दो एक अकार की व्याख्या होपक्रतीहे जो. कि-विस्तार के थय से नहीं लिखी गई

| ( विशेष व्याख्या )-वेद परमात्मा की $| विभूति है, उस से परमात्माकी प्राप्ति का || उपाय और उस के स्वरूप को जानने की री ति आदि वणन की गई है, ऊपर केमत्ों में - कदंगया हे कि-परमात्माके कोन और | अवणःसे आत्मसांक्षात्कारःहोता है, अब उस | कीततेन आदि का प्रकार कहते हे कि जिस की | कथा का चिन्तंवन करने से जीवन तिष्क- | लेक होता है, जीवन की जन्ति दूर हो जाती | हे उस सकल भ्रान्तियो के हरनेवाले परप पुरुषका जब चिन्तंवन वा कोतन किया | जाता हे उस संमय यदि साधक उस के वि | षय में संवया अनजान रहे, तो उस अथे ' रीन जिला, या. त्तरा, फेल तही

नाश नहीं होता है और गानजनित

| छी वास्तविक अनुपम आनन्द पाने का . कारी और परमात्मा का परम प्यारा है, इसी

मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्ध

; 1. & ] | जे कलः मंनोरथ. नहीं हो सकते, अतः :

(१६०). श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ - [बि

होता दै विना अर्थ को जाने सांप के मेर |

आनन्द के पाने का अधिकारी नहीं शेत! उस के चरणों में मन प्राण अपण करके के साथजो उस की उपासना करता हेवा

लिये भगवान ने खय कहा है ““मय्यावेर

.. परयोपेतास्ते मे गुक्ततमा मताः ˆ सा

` वात है ज्ञान, जिस समय जी: कुछ करो ज्ञाने एवक करो; अज्ञान भरे हृदयमें भाव से रहित होकर चाहे. कोइ काम करो

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2192] अन्ययन्पदा्थ-मावार्थ साहित (१६१)

| है. इंसलिये समाधिका अवलम्बन करो, समाधिहीन क्रियाका फल पुष्पहीन छता की

समान है, उस क्रिया का फल केवल शारी- रिक और मानसिक श्रम ही है ओर कुछ है ( PFS BR

| छन्दसि गना: तवो

अन्वय और पदाथ. छन्दांसि ) वेद ( यज्ञाः ) यज्ञ (क्कतंवः ) यज्ञ (ब्रतानि) . व्रत .( भूतम्‌ ) व्यतीत ( भव्यप्‌ ) भविष्यत | (च) ओर (बत्‌) जो वतमान -हे( वेदः) ` वेद ( वदति ) कहते है ( अस्मात्‌ पुर इस ब्रह्मः . से. (समुत्पद्यते ) उत्पन्न होता है (मायी). `

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1 मायारूप उपायि से युक्त हुआ ( एतत्‌ )

| . पुरुषार्था का वर्णण करनेवाले वेद वेद

.. और व्य्टिमय कायकारणरूप उपाधिमे

(१६२) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [ 4.

(विश्वस्‌) विश्व को ( सजते ) उत्पन्न करता हे ( च) और (तस्मिन्‌) तिस में ( अन्यः इव) अन्य की समान (मायया) माया करके ( सति रुद्धः ) बंधा हुआ अमति ) अमता है ९॥

( भावार्थ ) परम देव परमेश्वर अपनी माया शक्ति के द्वारा, धम, अथे, काम, मोक्षरूप

` वर्णन किवेहुए अग्निष्टोम आदि यज्ञ, चन्दर / यण आदि ब्रत यागादि साध्यगूत भविष्या ; वतेमानरूप काल, इस सब जगत्‌ को रचका .' अपनी मायाशक्ति के विवतस्वछूप सम

जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम््र की संमा] प्रवेश 5 करके, वास्तव में नि्िंप्तमाग

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`) ५] ` अन्यय-पदार्थे-आावार्थ साहित (१६३ ) |

| आदिके द्वारा बँधकर जीव नामको पाता है, | इस बात को प्रगट करने के लिये ही यह मंत्र )| लिखा गया है। जिसका प्रमाण बेदो में है ऐसा || यह सम्पूण जगत अविनाशी विह्वाश्रहित अक्षर ब्ल्न से उत्पन्न होता है। अविकार अक्षर || ब्रह्म से क्षर और विकारयुक्त जगत्‌ केसे उत्पन्न + होगया ! इस सन्देह को दूर करने के लिये | कहते हे कि वह माया को स्वीकार करके इस | विश्व की रचना का व्यापार करता है, . | इस जगत्‌ में अपनी माया के पाशसे बँधकर : | वह परम पुरुष ही जीव नाम को धारण. करताइआ दूसरे को समान अथात्‌ ब्रहते जुदासा, जीवरूप में अविद्या के वशीभूत. होकर अपनी माया के “रचे इए संसारससुदर में | घूपताईै। नदी की तरंगों में प्रतिबिम्बित हुए. ` चन्द्रमाको पत, डत जत में, अतित्रिय 00.

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(१६४) ` श्वेताश्वतर उपनिषद | ` [ श]

रूपसे अनुमान में आता हुआ भी यह विश

नाथ वास्तव में जगत्‌ से निल है तथापि

अविद्यारूप पारे से ढळे हुए विश्वरूप दपण ` सेंउसका प्रतिबिम्ब पड़ता है, यह सत्य है, परन्तु वह वास्तव में दपण में दीखनेवाले पदार्थ

` की समान विश्‍व से सवथा अलग है, यही भगवान्‌ ने गीता में कहा है प्रकृति स्वामवहः' ~ भ्य विसजासि पुनः पुनः॥थूतग्राममिमं कृत्स्त , मवशं प्रकतेवशात॥ मां तानि कर्माणि तिंबभन्ति धनञ्जय उदासीनवदासीन मसतं .' तेषु कस्ट” ९॥ |

1. अन्वथ-पदार्थ-भावार्थ सहित) (१६५)

अन्वय और पदार्थ-(म्रायास्‌ तु) माया [| को तो ( प्रतिम्‌ ) प्रकृति (मायिनस-तु )

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| सायावाले को तो ( महेश्वरम ) महेश्वर

| (विद्यात्‌) जाने ( तस्य ) तित के ( अवयः | बभूतैः ) मायामय अवयवो के द्वारा ( इदम्‌ ) | यह ( सवेम्‌ ) सब ( जगत्‌ ) संसार ( व्याप्तम्‌ ) - ज्याप्त है॥ १० | | | (सवाथ )-जिस महामाया में आत्मस्वः | रूप को देकर वह बडी महिमावाले परमएरुष _ | गत्‌ को रचते हैं, उस मायाका ही प्रकृति नाम जानो और उस ही परमा माया वा

| परमा प्रकृति के वशीभूत हुए को महेश्वर अर्थात्‌ | परमेश्वर नाम से कहो, उस की मायारूपी ` केंचुली से ढके इए अवयव के द्वारा अथात उस महापुरुष. की माया से जडे इए अवयव-

स्वरूप जीव के दारा यह, सकळ, संसार व्याप्त

(१६६) . श्वेताश्वतर पनिषद्‌ [२० |

. ` होरहा है। मायामय जीव की आत्माचुबृत्ति के साथ यह जगत लिपट रहा है, यही बात भग वान गीता में कहते है कि मयाध्यक्षेण प्रकृति सयते सचराचरम्‌ हेतुनानेन कोन्तेय जगदि। पारेवत्तेते १० .. ` . A

अन्वय और पदार्थ-( यः ) जो ( एकः) एक ( योनि-योनिम्‌ ) हरएक कारण में ( अधि तिष्ठति) अधिष्ठान होकर रहता है ( यस्मिन्‌। जिस में (इदम्‌) यह (सवम्‌) सब (सा! ' पति) अन्तकाल में प्रलय को प्राप्त होता |

2 तुच), और ( वि एति- व) अनेको

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४] `. अन्वय-पदार्थ-पावार्ण सहित (१६७) ' से प्रकाशित भी होता है (तश्र) उस ( इशानम्‌ ) निय॒न्ता ( वर्दष्‌ ) मोक्षदाता | (इडयम्‌ ) पूजनीय ( देवम्‌ ) परमपुरुषको ` (निचाय्य ) निश्चय के साथ साक्षात्‌ करके | ( इमाम्‌ ) इस ( शान्तिम्‌ ) शांति को ( अत्य | न्तम्‌ ) घनयावृत्तिरहित (एति) पाता दै ॥१३॥ ` | - (भवाथ ) जो अद्वितीय, दिव्य, परमपुरुष ` |. जगत्‌ के मायामय प्रत्येक कारण में अन्तयामी |. रूप से स्थित रहता हैं, माया के अधिष्ठाता | जिस प्रम पुरुष में यह सकळ ब्रह्माण्ड प्रयू- | काल में विलीन होजाता है और सृष्टिक्ाळ में | फिर अनेकों प्रकार के आकारों को घारण- | करके प्रकाशित होता हे! तिस सवोन्तयामी .

| विश्‍्वनियन्ता, मोक्षदाता, वेदादिपूजित, सञ्च Grr परमेश्वर को निम्नयहूप से वह ही ) पक वा कने, पर साधक सब |

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१६८ ) श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ [भव |

' प्रकारके दुखोंसे छट, निरन्तर सुखस्वरूपिणी ' चिरकालीन शान्ति को पाजाता हे उसको फिर संसार के दुःख नहीं भोगने पड़ते हैं। 'प्रलयकालमें फिर यह अनन्त ब्रह्माण्ड उप आदिकारणमँ ही जाकर लीन होजाता है। कहीं कहा भी हे “संहत्य सर्वेभ्ृतानि कृत्त चैकार्णवं जगत्‌ बालः स्वपिति यश्चेकस्तस्मे| कुष्णात्मने नमः अथोत्‌ सकल भूतों को

अपने में समेटकर और जगत्‌ को स्वह _⁄ बनाकर जो बालकमूर्ति प्रमदेवता शयन ` ताहे, उस कृष्णात्माको नमस्कार है 31

४] अन्वथ-पढार्थ-आवार्ष सहित (१६९).

-. - अन्वय और पदार्थ यः ) जो (देवानाम्‌) | देवताओंका (प्रभवः ) शक्तिका कारण (च ) | और (उद्भवः) उत्पत्तिस्थान ( विश्वाधिपः ) [| विश्व का स्वामी (र्ङ्गः) रुदर(च) और महषिः ) | सवैज्ञ शक्तिकाकारण है(हिरण्यगर्भम)हिरण्यगर्म | ( जायमानश्च ) होतेईए को (पश्यत) देखो | (सः) वह ( नः) इम को ( शुभया ( हित- | कारणी ( बुद्धया) इुदिसे ( संगुनछु ) संयुक्त | कृरे॥ १२॥ i |

( भावार्थ ) जो अनन्तशक्ति, परम महिमा- वाला पुरुष शक्तिवाले देवताओं की भी शक्ति- | कां कारण है, जो जगत्‌ का अद्वितीय स्वामी ` सुज्ञ और जगत्‌ का संहतो है, हे मुक्ति के | चाइनेवालो ! तुम इस . ना पुरुषको ही | . देखो, अपने में उसकी सत्ताको देखकर कताथ

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(१७०) श्रताखतर उपनिषद्‌ [ ०. |

होओ, वह हम को मोक्षविषयिणी शुभ बुद्दि देय्‌ १२.॥

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अन्वय ओर पदाथ-( यः) जो ( देवानाग) ) ` देवताओं का ( अधिपः ) स्वामी है (य ' स्मिन्‌) जिस में ( लोकाः) धूआदि लोक! ' (भअषिश्रिताः ) आश्रय करके रहते हैं ( यः )| जो (अस्य) इस ( द्विपदः) दो चरणवाठे ' आणिससूह को ( चतुष्पदः ) चार चरणवाहे ... प्राणिसमूह को ( इशे) ऐशी शक्ति से चलातारै hs हर कस्मे) किसी आनन्दरूप ( देवाय ) देव के . ( हविषा ) यजन के पदार्थों के द्वारा ऐवा करगे 3३.1... हे

( ४] अन्वब-पदार्थमावाथे सहित) (१७१)

| ( भावाथ ) जो परम ऐश्‍वयवाळा परमेश्वर j | ब्रह्मादि देवताओं का भी स्वामी हे, सकल- | ब्रह्माण्ड जिस की अनन्त सत्ता के आधार से | उहराहुआ है, क्या दो चरणवाले मबुष्यादि | और क्या चार चरणोंवाले पशु आदि सब ही | प्राणी जिस संवेनियन्ता के अपूव नियम में '। बँचेहुए हैं, उल चिदानन्दमय परमदेवता को | परमपवित्र यज्ञ के चरुपुरोडाशादि के द्वारा | सेवा करेंगे

| (विशेष व्याख्या) यज्ञ करने पर जिस | को कि-मेरा कहा जासकता है, वह सब उस | यज्ञ में उस के अपण करके अथोत्‌ सवेस्व उसके निमित्त उत्सग करके में रातदिन उस | की सेवामें ही लगारहँगा, यही इस क्षतिका _ तात्पर्य है, कुछ अधिक विचार करने पर इस ही; खुतिम कछ और. मी.मधाता.,मिलती है।

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|. (१७२) ` श्वेताश्वंतर उपनिषद... [भव अनन्त शक्तिशाली अचिन्त्यप्रभाष देवता पर्यन्त जिस के अधीन हैं; सब संसार जित ' की विराट सत्ता के आंश्रय से रहता है, जगत्‌ के सकळ जीव ही जिसकी आज्ञा में हैं-आननद ' जिस की मूर्ति है! सत्‌ जिस का स्वभाव रे, | और ज्योति अर्थात्‌ विश्व प्रकाशिका कान्ति जिसकी सत्ता है, उस को यदि में अपना है ` सर्वस्व अर्पण करसकता हूँ; शरीर मन वाणी | से यदि उस का दासभाव स्वीकार कळे > निरन्तर उस के ध्यान में ही मग्न होकर | ' रहसकता हूँ तो जगव सें मेरी समान सौभाग्य | . वाब कोन हे! जिस के अक्षय अनन्त भण्डार | '. सरस्व समर्पण कर के यदि ( मेरा है, ऐसा | '. कहकर पकडसक्‌ तो मुझ को दुःख ही क्या ; , सके नितर-महेच्च/युरूषःसे निरन्तर” अग्रमेय

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४] अन्वय-पदार्थ-भावार्थं सहित। ( १७३) |

आनन्द का झरना बहता रहता है, | यदि उस | सदा आनन्द निकेतन के चरणों में मन

और प्राणों का बलिदान करसळू तो सुज्ञ को

| कमी ही क्या रहै! आनन्दके लिये ही जगत्‌ | तडफड़ाता फिरता दै; केवळ आनन्द के लिये | ही तत्काल उत्पन्न हुआ बाळक माता के दूध ( को चाहता ' हे, केवळ आनन्द के ही लिये

माता पुत्र को प्राण समझकर पालती हे;

| केवल आनन्द के ही लिये पत्नी पतिको

वाहती है, केवल आनन्द के लिये ही अवस्था

कोप्राप्तहुआ पुरुष खरी की चाइना करता है | केवल मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी आदि की | योनियों में भी निरन्तर आनन्द का ही सोत | बहता है। इस कारण जब आनन्द ही जीवन | का पाने योग्य प्रधान पदार्थ है! तब जिसके

भित--शोवे. से.-अप्रते.. इजिखत्‌ इस...थोड

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(१७४) श्चेताश्वतर उपनिषद 1),

आनन्द को अपेक्षा हम करोड़ों गुणा अधिक अपरिमित, अनम्तकाल स्थायी अपूव आनन्द पासकते हैं, जिस करुणामय की दयाड्यी कह्पलता की छाया में संसारताप से झुळसे हुए | शरीर को विश्राम दे सकने पर हदय की अप |

ह्य यातना चिरकाल के लिये अंतहित होजा.|

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चरणों में यदि आश्रय पाने की प्राथना न|

; कोन है! ऐसे सनातन आनन्द स्वरूप शक्ति |

यगी में आनन्द के कमनीय कोने में निद्रा छे सकूँगा, हाय ऐसे महिमा बाले पुरुष के! कह तो इसा ढीठ आत्म दोही इसरा और | मान्‌ स्वामी के चरणों में किसी समय भी यदि अहकार को छोडकर सर्वस्व की अंजलि'

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अपणन करू तो बुझसा अभागा और कोत | . होगा। सामने निर्मळ जलवाली पवित्र गंगा | बह री हतम्‌ यदि उसे गोता... -खगाओ |

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"| | $ ] अल्वय-पदार्थ-नावार्थ सहित (१७ )

तो कहो तुमसा पाखण्डी तुमसा हृदय दीत दुरहष्ट पुरुष और कौन होगा इसी लिये अनु- भवी साघङ कहता है कि-भेरा सवस यज्ञको |

सामग्री की समान उस परमदेवता के चरणोमें . "| अर्पित है और में निरन्तर उसका ही ध्यान

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10.3, बी Ele गाता दि वः शान्तिमत्यन्तनेति॥ १४॥

अन्वय और पंदाथ-( सुक्मातिसूकष्म ) . सक्ष्मसे भी परम सूक्ष्म (कलिलस्य) अविद्या | . झौर अविद्याजनित (अतीत ) दुगेम गहनके | ( मध्ये ) मध्य में ( वत्तमानम्‌ ) वर्तमान | ` (ववस्य) विर. के, सरम्‌) रचनेवाले

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' आदि भेदोवाला हे अतएव अनेकों रूपों से| ' जगत्‌ के अद्वितीय परिवेष्टयिता अथांत सर्वत्र त्य उस मंगला के महान्‌ भण्डार को | जानढेने पर साथक चिरकाल को. शान्ति

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४]. अन्य पदाथे-मावार्थ सहित (१७७)

| पासकता हे वह प्रभु होकर प्रकृति के कार्यो )| को देखता है, यही बात गीतामें भी कही है | “मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्‌ हेतु | नानेन कोन्तेय जगद्विपारिवत्तते १४

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| अन्वय और पढाथ-( सः ) वह ( एव) ही | (काळे ) कमय पर ( अस्य ) इस ( भुवनस्य ) | जगत का ( गोप्ता ) रक्षक (विश्‍वाधिपः ) | विश्वपति ( सवभूतेषु ) सकल भूतो में ( गूढः) | स्थित ( यस्मिन्‌ ) जिस में ( ब्रह्मपेयः ) ब्रह्मषि

(च), (देवता: ) देवता युक्त; ) एकता

| ` प्रे वह ही हूँ ऐसा प्रत्यक्ष करके वा योग , आश्रय ले जिसमें समाधि छगाकर रहते